विरासतें थक जातीं हैं, पीढ़ियों तक चलते चलते,
और फिर ढह जाती हैं, अकेले में पलते पलते ।
हर कोना हवेली का अब भरता है सिसकियाँ ,
चिराग भी बुझ चुके है , अंधेरों में जलते जलते ।
आत्मा इस हवेली की , भटक रही है बदहवास ,
जाना उसे भी पड़ेगा , अब उम्र के ढलते ढलते ।
उम्र के इस पड़ाव अब , किस तरह बढ़ेंगी साँसें ,
पीढ़ी बदल चुकी हैं , हम पुराने हुए गलते गलते ।
वो बाग महकता था जो फल और फूलों से ,
ठूँठ बने दरख़्त कल के , चुक गये हैं फलते फलते ।
वो वारिस जिनकी किलकारियां , गूँजी थीं मेरे आँगन में ,
छोड़ कर चल दिए हमें , बेगाने बनकर छलते छलते ।
और फिर ढह जाती हैं, अकेले में पलते पलते ।
हर कोना हवेली का अब भरता है सिसकियाँ ,
चिराग भी बुझ चुके है , अंधेरों में जलते जलते ।
आत्मा इस हवेली की , भटक रही है बदहवास ,
जाना उसे भी पड़ेगा , अब उम्र के ढलते ढलते ।
उम्र के इस पड़ाव अब , किस तरह बढ़ेंगी साँसें ,
पीढ़ी बदल चुकी हैं , हम पुराने हुए गलते गलते ।
वो बाग महकता था जो फल और फूलों से ,
ठूँठ बने दरख़्त कल के , चुक गये हैं फलते फलते ।
वो वारिस जिनकी किलकारियां , गूँजी थीं मेरे आँगन में ,
छोड़ कर चल दिए हमें , बेगाने बनकर छलते छलते ।
7 टिप्पणियां:
बहुत सुन्दर, यथार्थपरक
आभार शास्त्री जी ।
बहुत बढ़िया
बहुत सुंदर सृजन।
बहुत उम्दा और भावपूर्ण।
भावपूर्ण छंद ... हर छंद जीवन की सच्चाई बयान करता है ...
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