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सोमवार, 29 अगस्त 2022

हवेली बनाम पीढी!

 लोग कहते हैं ,

हवेलियां मजबूत होती हैं ,

एक पीढ़ी उसको बनाती है 

तो 

दूसरी पीढ़ी उसको सजाती है ।

ये मैंने भी देखा है ,

साथ ही देखा है - 

बड़ी बड़ी हवेलियों को दरकते हुए ,

भले ही ईंटें न बिखरें ,

छतें न दरकेंं

फिर भी दीवारों में दरारें आ ही जाती हैं।

बनने लगती है,

नयी दीवारें आँगन में,

बाँटने को पीढ़ियों के अंतर को।

कोई भी हवेली अखण्ड नहीं होती है, 

वो बरगद या पीपल नहीं होती,

जो शाख-दर-शाख चलती ही रहे।

बीज भले दूर दूर तक जाकर उग आयें

हवेलियाँ  कहीं नहीं जाती है।

एक दिन ढह जाती हैं 

और खण्डहर बन सदियों तक भले पड़ी रहें।

 

इतिहास बन गए!

 गुजरे साल के वो भयावह दिन ,

किस तरह एक तारीख़ बन गए। 

 

समेट  कर जो कुछ रखा था यादों में ,

कुछ ज़ख्म  कुछ फाहे बन गए। 

 

नहीं जानते कौन कब बेगाने हुए ,

कौन दिल से जुड़े और साये बन गए। 

 

जिया था जीवन साथ जिनके उम्र भर ,

गर्दिश  में देखा तो अनजाने बन गए।

रिश्तों की सिलन!

 रिश्तों में सिलन

जन्म से होती है,

तभी तो

सब मिलकर बनता है

परिवार परिधान।

सबका अलग अलग अस्तित्व

फिर भी जुड़े होते है ।

सारे अवयव

जुड़े होते है सिर्फ माँ से,

और माँ संतुलन बनाये

सबको धारे रहती है।

समय के साथ

आकार बढ़ता है फिर

अपने ही सामने 

जब टूटने लगती है वह सिलन,

फिर नहीं सिल पाती है

सिल भी ले तो

नहीं हो पाते हैं

सब एक साथ , एक आकार में।

खुद सुई तागा लिए

कभी इसको सुधारती है

और कभी उसको

लेकिन खुद दोषी बना दी जाती है

और एक किनारे बैठा दी जाती है।

कहीं कॉलर,

कहीं आस्तीन,

कहीं बाँधने वाला फीता,

शेष बचा भाग उड़ जाता है हवा में,

वो देखती रहती है बेबसी से,

उस सिलन की सूत्रधार ।

शुक्रवार, 19 अगस्त 2022

सावन!

 सावन लिखा

तो

मायका याद आया,

इस घर से वहाँ जाना,

नीम पर पड़ा झूला,

सारी सहेलियों की टोली,

हफ्तों पहले से सपने

तैरने लगते थे।

कितनी तैयारी होती थी?

छोटी बहनों के लिए

कुछ लेकर तो जाना है,

भाई की पसंद की राखी

पसंद की मिठाई,

भाभी की चूड़ियाँ, कंगन

सब इकट्ठा करके चलते थे।

आज 

वहाँ न माँ-पापा रहे

न बहनें - सब अपने घर

अब नहीं मिल पाते वर्षों,

और भाई भी रूठ गये,

फिर कैसा सावन, राखी, चूड़ियाँ, कंगन

सब बेमानी हो गये।

खो गये सब मायने

और मायका भी तो बचा कहाँ?

न माँ, न पापा और न भाई हों जहाँ।

ऐसा भी घर !

 उस मकान से

कभी आतीं नहीं 

ऐसी आवाजें

जिनमें खुशियों की हो खनखनाहट।

खामोश दर,

खामोश दीवारें, 

बंद बंद खिड़कियाँ,

ओस से तर हुई छतें

शायद रोई हैं रात भर ।

कोई  इंसान भी नहीं 

हँसता यहाँ,

मुस्कानें रख दी हैं गिरवी। 

उनके यहाँ 

खुशियाँ ने भी

न आने की कसम खाई है।

शायद इसीलिए

हर तरफ मायूसी छाई है।

गुरुवार, 4 अगस्त 2022

माँ : एक भाव!

 

माँ 
क्या 
एक इंसान भर होती है
फिर क्यों लोग 
सगी और सौतेली का ठप्पा लगा देते हैं।

माँ 
एक भाव है,
जरूरी नहीं कि उसने
हर बच्चे को जन्म दिया हो,
फिर भी संभव है 
कि बहुतों को प्यार दिया हो।

माँ
जो प्यार बाँटती है,
अपने बच्चों में, 
पराये बच्चों में भी,
वह न देवकी होती है न यशोदा
फिर भी वह माँ होती है।

माँ
ऐसी भी होती है,
समेट लेती है,
उन बच्चों को भी
जो आँखों में आँसू लिए 
नजर आ जाते है।

माँ
वह इंसान है 
जिसे हर बच्चे में
अपना ही अंश दिखाई देता है
और प्यार तो वह अपरिमित बाँटती है।

हाँ 
माँ 
एक भाव ही होती है,
अपने पराए से परे
आँचल पसारे , दिल खोले,
आँखों में प्यार लिए होती है।