कहाँ से लायें हम
संगीनों के साए
जिनके तले
महफूज़ रखें
अपनी बेटियों को.
पहले तो जन्म से पहले ही
घर वालों की नज़रों से दूर
कोख में पालना दूभर
हाँ अभी भी
हम वहीं हैं
बेटे की कामना में
बलि देने को तैयार
जैसे खाने दाँत और
दिखाने के कुछ और.
फिर जन्म ले लिया
तो उसके बचपन में भी
प्यासी हैवान आँखें
आस पास मंडराती हैं.
गर पा गए तो
क्षत विक्षत कर दिया
फिर भी मन न माना तो
मौत की नींद सुला दिया.
इन घिनौने चेहरे पर
अपनों के भी नाम लिखे हैं
चाहे जैसे सही
गर्भ में मारा
जन्मते मारा
बच्ची में औरत की तलाश में मारा
या फिर
अपनी शान में मारा.
हत्यारे में वे भी शामिल हैं
जिनको तोतली बोली में
रिश्तों का नाम देती थी
या देनेवाली थी
पर
वह लड़की थी
जीवन उसको नसीब न था
भ्रूण ,बच्ची या युवा
बेटी बचाई तो
बहू को डस लिया
आखिर खा ही जाते हैं
वे जो बहुत अपने होते हैं.
रविवार, 11 जुलाई 2010
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9 टिप्पणियां:
बहुत सुन्दर और मार्मिक कविता है दी. लड़कियों की यह त्रासदी कब खत्म होगी, पता नहीं.
बहुत मार्मिक अभिव्यक्ति
बहुत ही मार्मिक लगी आप की यह कविता, अगर मेरा बस चले तो मै ऎसा कर्म करने वालो को चोराहे पर खडा कर के गोली से सिर्फ़ हाथ पांव ऊडा दुं, ताकि इन्हे देख कर बाकी लोग सबक ले सके
हाँ सही बात है लडकियाँ कहीं भी महफूज़ नहीं आखिर कब तक किस किस से इन्हें बचाये कोई? बहुत अच्छी मार्मिक रचना है। शुभकामनायें
रेखा जी, इस विषय को अपनी कविता का आधार बनाने के लिए शुक्रिया। अन्यथा न लें पर मुझे लगता है कि आपकी कविताओं में इस विषय दुहराव बहुत अधिक हो रहा है । दोहराव में भी कोई समस्या नहीं पर बात फिर कुछ अलग ढंग से आनी चाहिए। आशा है आप इस पर विचार करेंगी। शुभकामनाएं।
Maarmik ... aisa karne waalon ko maar dena chaahiye .. jeene ke kaabil nahi hain ye log ...
rajesh jee,
ho sakta hai ki duhrav ho raha ho lekin pata nahin kyon roj aisi ghatnayon par kalam kuchh na kuchh rach jati hai age khyaal rakhoongi.
dil ko chhuti rachna
बहुत सुन्दर और मार्मिक कविता है
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