बहुत दिनों से
खुले अध्याय का
आज पटाक्षेप हो गया.
सब कुछ ख़त्म
एक लम्बे सफर की दास्ताँ
जो खुद बा खुद लिखी जा रही थी
फिर अचानक
एक आई ऐसी आंधी
कि पन्ने बिखर गए
उनमें अंकित इतिहास भी
धुंआ धुंआ हो गया.
उसमें जन्मे, जिए
किरदारों का भी
नामोनिशां न रहा.
तिनका तिनका जोड़कर
आशियाँ बनाया था
चिंदी चिंदी बिखर गया.
न जाने कहाँ
किस दिशा में
अवशेष चले गए
जो शेष रहे
वे भी तो सम्पूर्ण न थे.
अवशेष ही अवशेष थे.
बस उन्हें बटोरने के लिए
एक हम ही तो शेष थे.
सोमवार, 12 जुलाई 2010
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6 टिप्पणियां:
बहुत भावपूर्ण रचना...सब कुछ गवां दिए जाने का भाव बहुत मार्मिक है....
नीरज
वे भी तो सम्पूर्ण न थे.
अवशेष ही अवशेष थे.
बस उन्हें बटोरने के लिए
एक हम ही तो शेष थे.
......bahut hi bhawpoorn rachna
bahut sundar rachna
अवशेष के भी अवशेष.....और बस शेष स्वयं को कहा है...बहुत टीस भरी रचना...
बहुत मार्मिक रचना
सुंदर भावपूर्ण रचना के लिए बहुत बहुत आभार.
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