आज पता नहीं क्यों?
भूला हुआ बचपन
फिर याद आया है.
तौल रही हूँ
तब से अब तक
जिए हुए पलों को
क्या खोया क्या पाया है?
वो छोटे छोटे सपने
सखियों के संग बुनना,
किताबों की ओट से
छुप छुप कर हंसना,
लंगड़ी टांग, खो-खो के संग
झूले पर पींगे भरना,
गुड़ियाँ की शादी
गुड्डे से रचाना,
जो सुना था बड़ों से
गुड़ियों को सिखाना ,
फिर अचानक
छोटने लगा बचपन
सखियाँ भी छूटी .
सब चल दिए
अलग अलग राहों पे,
वह दौर शुरू हुआ
सबके जीवन का
घर , परिवार , बच्चे
और दायित्वों का बोझ
तय किया लम्बा सफर
आज सब पूरे हुए तो
सपने से जागी सी
फिर खोजने लगे अतीत
फिर वही याद आयीं
पुकारा उन्हें तो
आवाज वहाँ से आई
हम भी वही हैं
तुम चली आओ
फिर गले लगकर
जो आंसू बहे थे
छिपा था उसमें बचपन
या मिलने की ख़ुशी थी.
बस
फिर मुझे अपना बचपन याद आया है.
सोचेंगे फिर
क्या खोया क्या पाया है.
रविवार, 25 जुलाई 2010
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7 टिप्पणियां:
बचपन की यादें भुलाये नहीं भूलतीं - खूब कहीं बहुत सुंदर
बचपन की यादें इंसान को हमेशा सालती रहती हैं ... अच्छे से बुना है आपने इनको रचना में ...
वाकई, वो बचपन की यादें...
रेखा जी बचपन को भी आप वैसे ही याद कर पा रही हैं,जैसे एक सामान्य आदमी करता है। इसमें हमें रेखा जी तो नजर ही नहीं आ रहीं। कुछ ऐसा खोजिए न अपने बचपन में से जो सबसे अलग हो। शुभकामनाएं
1
ज़िंदगी के इस पदाव पर भी बचपन कहाँ भूल पते हैं...सुन्दर अभिव्यक्ति
rajesh jee,
bachpan sabaka ek jaisa hi hota hai. vahi bachpan maine jiya hai aur vahi meri maan ne bhi jiya hoga . ye raste to baad men hi nikalte hain ki kaun kya karta hai? phir bachpan aur ve sakhiyan hamesha pyari hi rahati hain.
कुछ ऐसा खोजिए न अपने बचपन में से जो सबसे अलग हो। शुभकामनाएं
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