रोज उठाती हूँ कलम,
कुछ नया रचूँ,
शुरू होती है जंग,
शब्दों और भावों में,
नहीं नहीं बस यही रुकूँ,
समझौता तो हो जाए।
शब्दों का गठबंधन
भावों का अनुबंधन,
एक नहीं हो पाता।
जो रचता ,
रच न पाता।
कैसा है संशय मन में?
आखिर कैसा हो?
जो लिखूँ?
कभी झाँकती सूनी आंखों में,
कभी पढ़ूँ उन कोरे सपनों को,
रंग भरूँ क्या नए रूप से
साकार करूँ उन सपनों को
कोई ऐसा गीत रचूँ क्या?
आशा का दीप बनाकर
रोशन उनकी आशा कर दूँ,
या
फिर प्रेरणा भरकर
उसमें उसके अंर्त में
एक ज्योति जलाऊँ,
इससे पहले स्याही सूखे,
कुछ तो सार्थक रच जाऊँ।
रेखा श्रीवास्तव
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