हम साथ ही चले थे,
रहना भी साथ ही था,
मगर
वक्त की बेरहम आंधी
कहाँ से कहाँ ले गयी?
हम फिर चल दिए
नए रास्ते पर
जो नियति ने हमें दिए थे.
हम बेखबर हो गए,
तुम हमसे औ'
हम तुमसे
पता नहीं कैसी नियति थी?
एक मुकाम पर
फिर मिले हम
आँखें झपकाकर बार बार
देखा था - एक दूसरे को
एक युग के अन्तराल ने
सब कुछ बदल दिया था.
जब देखा एक दूसरे को
आँखें डबडबा आयीं.
शायद ये आत्माओं का अहसास था.
समझ गए हम दोनों,
दोस्त तुम वही हो
जिसको हमने खोया था.
आँखें पोछी, हाथ हिलाए
और चल दिए अपने रास्तों पर.
एक सुकून सिर्फ देखने का
पता नहीं कितनी शांति दे गया.
सकुशल तो हो
सब कुछ बदल गया
बस याद कहीं शेष थी अंतर में.
होंठ मुस्करा दिए,
सलामत रहो
ये दुआ है हमारी,
मिलेंगे फिर कभी
इसी तरह राहों में
क्योंकि जिन्दगी के रास्ते
मुस्तकिल नहीं होते.
ठिकाने भले दूर हों
इरादे मुश्किल नहीं होते.
11 टिप्पणियां:
pranam !
navvarsh ki hardik badhai ,achchi abhivyakti , sunder rachna .
sadhuwad .
saadar
क्योंकि जिन्दगी के रास्ते
मुस्तकिल नहीं होते.
ठिकाने भले दूर हों
इरादे मुश्किल नहीं होते!
बहुत सुन्दर, ज़बरदस्त, बेहतरीन रचना!
आदरणीय रेखा श्रीवास्तव जी
नमस्कार !
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति के साथ ही एक सशक्त सन्देश भी है इस रचना में।
...........ज़बरदस्त
आपने ब्लॉग पर आकार जो प्रोत्साहन दिया है उसके लिए आभारी हूं
ज़िन्दगी के फ़लसफ़े को आपने काव्यात्मक अभियक्ति दी है। बहुत अच्छी प्रस्तुति। हार्दिक शुभकामनाएं!
‘देसिल बयना सब जन मिट्ठा’ का प्रथम पाठ पढाने वाले महाकवि विद्यापति
जिन्दगी के रास्ते
मुस्तकिल नहीं होते.
ठिकाने भले दूर हों
इरादे मुश्किल नहीं होते ...
सच कहा है ... कभी न कभी तो दुबारा मुलाक़ात होगी अगर याद बाकी है ... Iraada ho dil mein ...
sach kahti rachna.
शायद ये आत्माओं का अहसास था.
...
nihsandeh yah aatmaon ka ehsaas hai
"क्योंकि जिन्दगी के रास्ते
मुस्तकिल नहीं होते.
ठिकाने भले दूर हों
इरादे मुश्किल नहीं होते"
बहुत अच्छी प्रस्तुति। हार्दिक शुभकामनाएं!
बेहतरीन एवं प्रशंसनीय प्रस्तुति ।
हिन्दी को ऐसे ही सृजन की उम्मीद ।
धन्यवाद....
satguru-satykikhoj.blogspot.com
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