मैं धरती
मैं पृथ्वी
मैं धरा कही जाती हूँ।
मैं जीवन
मैं घर द्वार
मैं सरिता ,जंगल -वन , पर्वत,
सदियों से धारे हूँ।
सदियों से
सब जीव मुझसे जीवन लेकर
जीते , फलते और फूलते आ रहे हैं,
मेरी संतति कहे जाते हैं।
जब तक माँ समझा मुझको
मान और सम्मान दिया ,
मैं माँ
संतति तुम सबको
पाल रही थी,
पाल रही हूँ।
फिर बदल दस्तूर जहाँ का
संतति हुई माँ से बढ़ कर
मैं बेचारी मौन हो गयी।
हरीतिमा मेरी
जो था मेरा पहला श्रृंगार
सबसे पहले लिया उतार।
पाट दिए तुमने
कुएँ , जलाशय , झील ,बावड़ी
बांध दिया सरिता की गति को ,
सूखी धरती कितना जिएगी ?
वायु प्रदूषण ,
जल प्रदूषण ,
ध्वनि प्रदूषण
इतने तो उपहार दिए।
मेरे ऊपर लाद दिया है तुमने
बोझ मेरे तन से ज्यादा ,
सिसक रही हूँ ,
कराह रही हूँ ,
तुम बधिरों से चुप हो लगाये।
गर क्रोध भरी माँ ,
बेटों को ताड़ना दे ,
सुधर जाओ ,
लेकिन तुम मानव
ईश्वर बन रहे हो।
अब शर्म आती है ,
अपनी संतान कहते ,
मेरे क्रोध से
तुम भयभीत नहीं।
नहीं चाहती अपनी ही संतति को
फिर अपने गर्भ में समां लूँ।
अब मजबूर हूँ ,
सहन नहीं होता
बोझ तुम्हारे प्रगति का।
अब भी सजग न हुए तो
सिर्फ तुम रहोगे ,
मैं नहीं ,
लेकिन तुम रहोगे कहाँ ?
गर समझ सको तो
समझो अब भी
माँ के बिना जीवन
जी न सकोगे ,
गर दूसरी धरा का निर्माण
कर सको तो
करके जी लेना।
मैं पृथ्वी
मैं धरा कही जाती हूँ।
मैं जीवन
मैं घर द्वार
मैं सरिता ,जंगल -वन , पर्वत,
सदियों से धारे हूँ।
सदियों से
सब जीव मुझसे जीवन लेकर
जीते , फलते और फूलते आ रहे हैं,
मेरी संतति कहे जाते हैं।
जब तक माँ समझा मुझको
मान और सम्मान दिया ,
मैं माँ
संतति तुम सबको
पाल रही थी,
पाल रही हूँ।
फिर बदल दस्तूर जहाँ का
संतति हुई माँ से बढ़ कर
मैं बेचारी मौन हो गयी।
हरीतिमा मेरी
जो था मेरा पहला श्रृंगार
सबसे पहले लिया उतार।
पाट दिए तुमने
कुएँ , जलाशय , झील ,बावड़ी
बांध दिया सरिता की गति को ,
सूखी धरती कितना जिएगी ?
वायु प्रदूषण ,
जल प्रदूषण ,
ध्वनि प्रदूषण
इतने तो उपहार दिए।
मेरे ऊपर लाद दिया है तुमने
बोझ मेरे तन से ज्यादा ,
सिसक रही हूँ ,
कराह रही हूँ ,
तुम बधिरों से चुप हो लगाये।
गर क्रोध भरी माँ ,
बेटों को ताड़ना दे ,
सुधर जाओ ,
लेकिन तुम मानव
ईश्वर बन रहे हो।
अब शर्म आती है ,
अपनी संतान कहते ,
मेरे क्रोध से
तुम भयभीत नहीं।
नहीं चाहती अपनी ही संतति को
फिर अपने गर्भ में समां लूँ।
अब मजबूर हूँ ,
सहन नहीं होता
बोझ तुम्हारे प्रगति का।
अब भी सजग न हुए तो
सिर्फ तुम रहोगे ,
मैं नहीं ,
लेकिन तुम रहोगे कहाँ ?
गर समझ सको तो
समझो अब भी
माँ के बिना जीवन
जी न सकोगे ,
गर दूसरी धरा का निर्माण
कर सको तो
करके जी लेना।
5 टिप्पणियां:
विश्व पृथ्वी दिवस पर सार्थक चिंतन प्रस्तुति हेतु आभार!
वाह . बहुत उम्दा,सुन्दर व् सार्थक प्रस्तुति
कभी यहाँ भी पधारें और लेखन भाने पर अनुसरण अथवा टिपण्णी के रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें |
बहुत सुन्दर और सच्ची कविता है दीदी.
सुन्दर व सार्थक प्रस्तुति..
शुभकामनाएँ।
मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है।
सार्थक।
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