ओ माँ
मैं तुम्हारी जिंदगी
नहीं जी सकती,
मुझे मत सिखाओ
ये दादी माँ की बंदिशें
पुरातन रुढियों की
दास्तानें,
पंख फैला कर
मुक्त आकाश में
उन्मुक्त उड़ान भरने दो।
गुनगुनाने दो
हँसी बिखेरती
गीतों की पंक्तियाँ
जो मुझे खुशी दें
औ' तुम्हें भी खुशी दें।
चाहती तो तुम भी हो
कि तुम्हारे बंधनों में
ये तुम्हारी बेटी न बंधे
औरों का क्या?
शायद
वे दूसरों के उदास चेहरों
औ' आंसू भरी आंखों
को देखकर
उनकी नियति मान लेते हैं.
पर मैं तो नहीं मान सकती।
कुछ पाने के लिए,
अगर असफल भी रही तो
फिर उठ कर वही
प्रयास दुहाराऊँगी
आज नहीं तो कल
ये आकाश अपना होगा।
अगर तुम भी साथ
नहीं दे सकती
मुझे अकेले चलने दो।
अपने अंश की पीड़ा
तुम तो समझो
मेरी हँसी में
शामिल नहीं हो सकती
तो ये आंसूं भी मत बहाओ।
मुझे मेरे हाल पर छोड़ दो,
मंजिलों तक जब पहुंचूं
ये आशीष मुझे दे देना।
न पहुँच पाऊं तो
मेरे हालत पर
आंसू मन गिराना तुम
ये मेरी लडाई है
औ' इसके मुझे ही लड़ने दो।
ये मेरी जिन्दगी है,
इसको मुझे ही जीने दो।
अगर बेटी होना अभिशाप है,
तो यह मुझे ही भोगने दो,
तुम अफसोस मत करना,
ये निर्णय गर गरल बन गया तो
इस गरल को मुझे ही पीना देना.
मंगलवार, 6 अक्टूबर 2009
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4 टिप्पणियां:
sundar !
नयी पीढी की उन्मुक्त भावनाओं की अच्छी अभिव्यक्ति.
बढ़िया अभिव्यक्ति बहुत सुन्दर रचना बधाई
हर व्यक्ति की अपनी उडान होती है उसकी जिंदगी, इसीलिए सभी को अपनी जिंदगी प्यारी लगती है। आपकी यह उडान कामयाब हो, ईश्वर से हमारी यही कामना है।
करवा चौथ की हार्दिक शुभकामनाएँ।
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बोटी-बोटी जिस्म नुचवाना कैसा लगता होगा?
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