पार्क की बेंच पर
वह संभ्रांत महिला बैठी थी
सर टिकाये अकेले में
बंद आँखों से
गिरते आंसुओं ने
खड़े किये सवाल हजार .
पूछा मन ने
कोई कष्ट है या है दर्द कोई?
कोई रोग है या है कुसंयोग कोई?
फिर कहा --
तन का दर्द तो
एक कराह से सह लिया जाता है।
ये आंसूं ख़ामोशी से
अंतर के दर्द को
बयां रहे है।
ये शोर नहीं मचाते
चुपचाप सूख जाते हैं।
अंतर का दर्द
ख़ामोशी से
तरह झेला जाता है
कुछ भी कहते नहीं है।
कुछ कह भी नहीं सकता
क्योंकि
अगर बांटने वाला होता तो
ये आंसूं
उसके कंधे पर सूख रहे होते
किसी अपने का कन्धा होता
रोने के लिए
तो फिर
अंतरआग्नि जलती ही नहीं,
तो फिर अंतर ज्वाला भड़कती ही नहीं।
अगर कोई अपना होता
तो
शीतल स्पर्श से शांत हो जाती ये अग्नि ।
8 टिप्पणियां:
uff .......kitna marmik satya kaha hai
सच कहा ...अगर कोई अपना होता तो ये आंसूं ना होते ,ये दर्द ना होता ..
बेहद मार्मिक लेखनी ..
har ek ko ek kandhe ki jarurat:)
bahut behtaren rachna...
मार्मिक....
बहुत मार्मिक प्रस्तुति।
--
आज चार दिनों बाद नेट पर आना हुआ है। अतः केवल उपस्थिति ही दर्ज करा रहा हूँ!
आज आपकी यह पोस्ट पढ़कर जाने क्यूँ किशोर कुमार जी का गाया हुआ वह गीत याद आ गया
"कोई होता जिसको अपना हम अपना कह लेते यारों पास नहीं तो दूर ही होता लेकिन कोई मेरा अपना"
भावपूर्ण अभिव्यक्ति
किसी अपने का कन्धा होता
रोने के लिए
तो फिर
अंतरआग्नि जलती ही नहीं,
सच्ची बात कही है आपने इस रचना में...
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