गुरुवार, 23 जून 2011
माटी और खम्भे !
घर कभी
माटी के हुआ करते थे,
माटी के ऊपर माटी की परतें
सब मिलकर एक हो जाती थीं।
उनमें बसने वाले लोग,
उनमें बसता था प्यार,
वे एक ही रहते थे
क्योंकि माटी का एक ही रूप होता है।
अगर तोडा तो पूरी दीवार ढह जाती थी ,
क्योंकि
उसमें और कुछ होता ही नहीं था।
तब मंजिलें नहीं होती थी,
तभी तो सब
एक ही जमीन पर
एक ही सतह पर
एक साथ जिया करते थे।
फिर मंजिले बनने लगी
जब तक दीवारों पर छत रही
शुक्र था
क्योंकि वे दीवारें तो एक थीं।
ब खम्भों पर
खड़ी बहुमंजिली इमारतें
उनका कोई अस्तित्व नहीं
कोई छत किसी की नहीं
सिर्फ फर्श अपना है।
ऊँचाइयों पर चढ़ने वाले
किसी के भी नहीं रहे
सिर्फ 'मैं' और 'मेरा'
बचा रह गया है।
मकान खरीद लेते हैं,
कल बेच देते हैं
लेकिन घर कभी नहीं बन पाता,
सिर्फ सोने की जगह है। ( चित्र गूगल के साभार )
जहाँ बच्चे , माँ -बाप
पति-पत्नी एक दूसरे के सानिंध्य को
तरसते रहते हैं।
अगर यही हमारी प्रगति है
तो हम इंसान से
मशीन बन चुके हैं.
और मशीनों में
संवेदनाएं नहीं हुआ करती।
सोचा वापस झाँक लूं
उन माटी के घरों में
जहाँ पुरखे रहा करते थे।
पर यह क्या?
पुरखों के साथ ही
माटी का चलन ख़त्म हुआ
क्योंकि अब
यहाँ भी
खम्भों के बीच जुड़ी दीवारों का
चलन आ गया है।
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8 टिप्पणियां:
यथार्थ को उजागर करती कडवी सच्चाई कह दी।
सटीक रचना .और सबसे ऊपर वाला चित्र बेहद खूबसूरत लगा.
शिखा आज भी गाँवों में इस तरह के घर मिल जाते हैं और मुझे तो ये बेहद पसंद हैं. बचपन में ऐसे घरों के बीच रही भी हूँ.
यथार्थ का सुन्दर विश्लेषण प्रस्तुत किया है आपने!
यही सच हो चला है...उम्दा रचना.
बस यही माटी के घर ही पसन्द है...सोंधी खुशबू लिए ज़मीन से जुड़े हुए....कविता दिल पर गहरा असर करती है...
aaj ka saty yahi hai insan masheen hai aur masheen me samvednaaye nahi hoti...yahi aaj kal hamare samaj me sankramak rog charo or faila hua hai.
sunder steek abhivyakti.
मिटटी के बने ये घर जाने क्या क्या याद दिलाते हैं ...सीमेंट के घरों में ऐसी ठंडक नहीं मगर अब इनमे रहने की आदत किसको है ...
प्रगति है , मगर खुशियाँ नहीं ...
सुन्दर कविता !
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