हम कहते हैं
देश में लोकतंत्र की
हत्या हो चुकी है,
क्यों न हो?
सत्ता का मद
बहुत गहरा होता है।
उसके लिए कुछ भी करेंगे,
जहाँ चुनावी सरगर्मी में
लोक के भूखे पेट की आग पर
राजनीति का तवा चढ़ा कर
वोटों की रोटियां सेकी जाती हैं।
पेट तो सिर्फ भूख जानता है,
वे रोटियां कैसे सिकीं
इससे नहीं मतलब
मतलब तो इससे है कि
वे रोटियां मिली
और पेट की अग्नि बुझी,
फिर जिसने जो कहा
कर दिया
फिर क्या लोकतंत्र और क्या राजतन्त्र
उन्हें रोटियां चाहिए।
रोटियां देने वाले शैतान भी
उन्हें देवता नजर आते हैं,
कल नहीं आज की
उदराग्नि बुझाने वाले
भगवान समझे जाते हैं,
भले भी वे कुत्ते समझ कर
टुकड़े डाल दें
और उनके कल पर काबिज हो जाएँ।
देखा नहीं
भूख से बिलबिलाते जन को
पैसे दिखाई देते हैं
चाहे जुलूस में ले जाएँ
या फिर
जिंदाबाद ही तो कहना है
फिर पेट भर खाने की
तृप्ति उन्हें बिकाऊ बना देती है।
अब लोक कहाँ और तंत्र कहाँ?
सोमवार, 6 जून 2011
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6 टिप्पणियां:
समसामयिक अच्छी रचना ..आज सच ही लोक तंत्र कहाँ बचा है ..
बहुत सटीक टिप्पणी...अब लोक तंत्र कहाँ है, केवल तंत्र बचा है जो कुचल रहा है लोक को...सुन्दर और सार्थक प्रस्तुति..
लोकतंत्र के हालात चिन्तनीय हैं...आपकी रचना सामयिक...
हालात को लेकर लिखी गई बढ़िया रचना!
आपकी पोस्ट की चर्चा यहाँ भी है .....
आज के खास चिट्ठे ...
बहुत सही कहा आपने... यही स्तिथि है... चाटुकार तंत्र के अंधे हो गए ..लोकतंत्र की मौत हो गयी है .. बस नाम को लोकतंत्र है...
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