आँख से आँसू
किसी के
यूं ही नहीं झरते
दर्द को पीकर
जुबान जब थाम लेते हैं
सिसकियों के खौफ से
गम को दबाते ही
किसी के आँख से
रुकने का नहीं नाम लेते हैं।
पार्क की एकांत बेंच पर
सुनसान सा कोना पकड़कर
चुपचाप पी गरल
अपमान औ' तिरस्कार का
इस तरह से दिल हलकान होते हैं ।
नजर पड़े उन पर
कभी
घर की सीमा में
बंद करो नाटक
सुनने से भयभीत होते हैं।
अपनों के दिए
दर्द की कसक
किस पर बयां करें
इस तरह से आँसू
गिराकर दिल थाम लेते हैं।
याद कर उनकी अठखेलियाँ
कभी लव मुस्करा जाते हैं
तैर जाती है हंसी
पर अगले ही पल
याद उस पल की
उनसे हंसी छीन लेते हैं।
एक बहस से बेहतर है
कुछ पल बिता लें
साथ उनके
बाँट लें थोड़ा सा गम
प्यार से डूबे स्वर
उस गम से उबार लेते हैं।
23 टिप्पणियां:
बहुत मार्मिक.....इन आंसुओं की कहानी......चित्र ने तो सच में आंसू ला दिए...
बुज़ुर्गों की व्यथा बहुत सहजता से उकेरी है आपने दी. मार्मिक रचना.
पार्क की एकांत बेंच पर
सुनसान सा कोना पकड़कर
चुपचाप पी गरल
अपमान औ' तिरस्कार का
इन पंक्तियों ने दुखी कर दिया मन...पूरी कविता ही मार्मिक है..बुजुर्गों की पीड़ा उकेरती और हमें शर्मिंदा करती हुई...
(ये चित्र किसका है?...मार्गरेट थैचर का लग रहा है ..शायद )
गम को दबाते ही
किसी के आँख से
रुकने का नहीं नाम लेते हैं.
बहुत सुन्दर रेखा जी ,आज चारों तरफ यही आलम है /
क्या कहने। वाह। बहुत खूबसूरत कविता। साधुवाद।
http://udbhavna.blogspot.com/
marmik
aansu jo dard ke hote hain......Rekha di aapne uske baare me byan kiya hai
.
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lekin khushi ke bhi aanshu hote hai......:)
bahut marmik aur khubsurat rachna.....:)
बहुत ही मार्मिक और सत्य को प्रकट करती हुई अच्छी रचना...
आंसू बहाव यह सोच कर नहीं कि हमारी ख्वाहिशे पूरी नहीं होती
बल्कि यह सोच कर रोवो कि हम कितने गुनाहगार है कि "हमारी दुआएं अल्लाह तक नहीं पहुँचती"...
REKHA DIDI,
बहुत ही मार्मिक रचना!!!
मार्मिक रचना
बाँट लें थोड़ा सा गम
प्यार से डूबे स्वर
उस गम से उबार लेते हैं.
मार्मिक रचना, सन्देश बहुत सार्थक
बहुत मार्मिक,,,आंसुओं की कहानी
पार्क की एकांत बेंच पर
सुनसान सा कोना पकड़कर
चुपचाप पी गरल
अपमान औ' तिरस्कार का
dil ko jhakjhorti hui kavita.
बेहतरीन रचना!
द सन्डे इंडियन में हिंदी के ऊपर शायद आपने ही कुछ लिखा था, पढ़कर अच्छा लगा!
मुकेश भाई,
जो आँसू ख़ुशी के होते हैं , वे रोते नहीं बल्कि हंसते हैं. चेहरा बयां कर देता है की ये गम में बहे हैं या ख़ुशी से छलके हैं.
नहीं रश्मि, ये मार्गरेट थ्रेचर नहीं है, किसी और का चित्र है.
सलीम भाई,
आंसुओं पर अपना वश नहीं होता है, ये बहाए नहीं जाते खुद बा खुद बह निकलते हैं. अब ईश्वर भी तो रिश्वतखोर होता जा रहा है. कहाँ सुनता है गरीबों की , जो गरीब हैं चाहे सुबह शाम मत्था टेकें वही रहते हैं और पैसे वाले डोल बजा कर सोने का छत्र चढाते हैं और बदले में ईश्वर उन्हें उससे कई गुण ज्यादा छत्र चढाने की दौलत देते हैं.
निलेश जी,
सन्डे इंडियन में मेरा ही आलेख था, और हिंदी के लिए ही मेरा कार्य भी समर्पित है. कभी मशीन अनुवाद के बारीकियों से अवगतकराऊँगी.
बहुत ही मार्मिक रचना लगी , दिल को छू गयी ।
'हाशिये में दर्द' फिर से पढ़ी और भी ज्यादा अच्छी लगी ...ऐसी रचनाएँ जो मन को भाये मैं कई बार पढता हूँ ..इसका शीर्षक ही आपने आप में एक कविता है
सच में हमारे बुजुर्ग कितने अकेले हो जाते हैं....उनका दर्द आपकी कविता में छलक पड़ा!
रेखा जी, प्रणाम,
कभी
www.mathurnilesh.blogspot.com
www.vandematarama.blogspot.com
पर आ कर मेरा मार्गदर्शन करें!
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