लोग कहते हैं ,
जमाना बदल गया है.
बेटे और बेटियां एक समान,
पर फर्क
दिख जाता है,
कुलदीपक होना जरूरी है.
वंश का नाम चलेगा.
लड़कियाँ थोड़े ही चलाती हैं.
हम क्यों भूल जाते हैं
गर लड़के कुलदीपक है,
तो लड़कियाँ कुल ज्योति क्यों नहीं?
नाम रोशन बेटे या बेटियां नहीं,
अपने कर्मों से होता है.
सम्मान भी अपने कर्मों से मिलता है.
बेटे या बेटियां
कितनी पीढ़ियों तक
आप का नाम चला लेंगे?
आप ही बतलाइये
आपके प्र-प्रपितामह क्या थे?
उनके नाम और उनके पिता का नाम
अपने गाँव और देश में
पूछ कर आइये
कोई नहीं बता पायेगा.
फिर वंश का क्या अर्थ?
गाँधी-नेहरु की बात लीजिये
गर इंदिरा न भी होती
तो नेहरु वही थे,
गाँधी तो
अपनी संतति से नहीं
अपनी पहचान खुद बने,
सिर्फ एक नहीं
सम्पूर्ण विश्व पटल पर
एक प्रतीक बन गए.
फिर
हम क्यों सोचते हैं?
नाम कोई और रोशन करे,
खुद ही क्यों नहीं?
करें कुछ कर्म ऐसे
रच जाएँ कुछ ऐसा
जो सदियों तक साक्षी रहे
हमारे कर्मों के,
नाम तो सदा रहेगा.
कोई पढ़ेगा या सुनेगा तो कहेगा ,
ये कोई सज्जन व्यक्ति थे.
ये मील का पत्थर
कोई मिटा नहीं पायेगा.
कुल दीपक या कुल ज्योति
इसके लिए जिम्मेदार नहीं?
हमारे कर्म ही हमारे जिम्मेदार हैं.
नाम रोशन करे या फिर कालिख पोत दें.
11 टिप्पणियां:
बहुत ही अच्छी कविता..एकदम सटीक...आज की व्यवस्था पर प्रहार करती हुई. दादा तक का नाम लोग बता देंगे..पर उसके आगे..?? फिर भी कुल दीपक और खानदान का नाम रौशन जैसी बातें करते हैं. कुछ लोग बदले हैं पर समाज की पूरी तस्वीर बदलनी चाहिए .कब मिलेगा लड़कियों को सिर्फ जीने का भी अधिकार और थोड़ा सा सम्मान :(
बहुत अच्छी कविता
सहमत.
उम्दा प्रस्तुती /लड़कियां किसी भी मामले में कम नहीं ,लेकिन समाज में बैठे भ्रष्ट और कमीने लोगों की वजह से लड़कियों के बारे में इस तरह की सोच बनाई जा रही है /ऐसे लोगों को सरे आम जूते मारने की जरूरत है /
कुलदीपक एक आशा है जबकि स्वयं अपना नाम रौशन करना एक काम है। जब आशा से काम चल जाए तो काम क्यों किया जाए।
घुघूती बासूती
एकदम दिल कि बात कि है रेखा जी ! काश कि सब ये समझ पाते..सुन्दर भावपूर्ण कविता.
घुघूती बासूती जी,
आपने सही कहा, तभी तो लोग कुल दीपक की आशा में लड़कियों को जन्म देते रहते हैं और उनकी परवरिश कैसी होती है? कुल दीपक के आते ही, बस वह तो गिनती के लिए संतानें होती हैं. वे वही तो कर्म करते रहते हैं. मानव जीवन की सार्थकता को समझने की कोशिश ही नहीं करता इंसान.
बिलकुल सही कहा ........नाम रोशन अपने कर्मो से ही होता है .ये सिर्फ कुछ सड़ी गली पुरानी मान्यताएं हैं जिन्हें हम पीट रहे हैं अब वक़्त आ गया है कि उससे इतर कुछ सोचें और करें ताकि सच में नाम रोशन हो ............... बेटा या बेटी से नहीं.
गिरिराज किशोर के बाद IIT में हिंदी के लिए नई आशाकिरण .अंकल SAM का प्रभाव कम होने लगा है क्या CAMPUS में?? रश्मि जी की बातो से सहमत , लेकिन मुझे अपने प्र - प्रपिता का नाम याद है .
आशीष जी,
यह जानकर बहुत ख़ुशी हुई की आप ईट के ही छात्र रहे हैं. जहाँ भी हों एक vertual relation तो होता ही है अपने संस्थान से.
गिरिराज किशोर तो दूसरा कोई बन ही नहीं सकता, प्रयास कर रही हूँ, वैसे IIT की हिंदी सेल इस दिशा में काम कर रही है और हाँ अंकल SAM मेरे काम में कम ही आ पाते हैं. उनसे परिचय तो बेहद जरूरी है लेकिन बिना हिंदी जाने कुछ नहीं होता.
बिलकुल सही बात कही है इस रचना के माध्यम से ..हमें भी बस दादा जी तक का ही नाम पता है...उनके पिता का नाम नहीं मालूम....
कर्म ही हैं जो अपनी पहचान छोडते हैं...सशक्त अभ्व्यक्ति
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