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सोमवार, 22 मार्च 2010

कल्पना - नए जहाँ की !

आओ रचें  एक विश्व ऐसा, 
एक लक्ष्य से जुड़ें सभी,
व्योम के विस्तार सा,
संसृति के विचार सा
संयमित एक आचार सा
संतुलित व्यवहार सा,
हो विश्व एक परिवार सा.
यत्न करें  संग-संग चलें,
संयुक्त ही सब प्रयत्न हों,
धीर धर के निपट लें
यक्ष प्रश्नों से सभी,
उत्तर सभी के पास हों ,
शंकाओं  की दिशा में
उलझ कर सिर नत न हो.
संकीर्णता  से दूर हों,
विस्तृत सोच  भरपूर हो,
अभिशाप हैं जो धरा के
शीश उनके तो अब चूर हो.
प्रगति के हर दिशा के
दूर सभी अवरोध हों,
प्रेम,विश्वास,सहयोग 
इस दिशा में न विरोध हों.

विश्व के विस्तार में
हर देश एक परिवार हो,
हित  सभी के जुड़ें वही
जहाँ सभी का विस्तार हो.
समवेत स्वर में मुखर हों
गूंजें दिशाएं गान से.
अभिव्यक्ति ऐसी हो सदा ,
हर स्वर में नया सहकार हो.
न हो द्विअर्थी वचन,
जिनकी हो शैली जटिल,
मिलें तो बस प्रेम हो,
न बम , न विस्फोट ,
कहीं कोई गोली बारी न हो.
विश्व के परिवार में 
कोई किसी पर भारी न हो.
सब जुड़ें , सब जुटें ,
बस कहीं कोई गाली न हो.
आओ रचें एक विश्व ऐसा - जहाँ सिर्फ इंसान हो.

5 टिप्‍पणियां:

shikha varshney ने कहा…

वाह रेखा जी बहुत ही लय में
लिखा हिंदी के खूबसूरत शब्दों से सजा,बेहतरीन सन्देश लिए खूबसूरत गीत है..और फ्लो तो कमाल का है

रेखा श्रीवास्तव ने कहा…

dhanyavaad shikha,

rashmi ravija ने कहा…

प्रगति के हर दिशा के
दूर सभी अवरोध हों,
प्रेम,विश्वास,सहयोग
इस दिशा में न विरोध हों.
बहुत ही आशावादी रचना है..रेखा दी. और शब्द संयोजन बिलकुल एक गीत की तरह हैं...जैसे सुरों में ढाल कर गाया जा सके...बहुत ही सुन्दर कविता है...

रेखा श्रीवास्तव ने कहा…

yaar, bas yahi vidha to aayi nahin, gana mere bas ki baat nahin hai.

संगीता पुरी ने कहा…

बहुत खूब !!