वो कला दीर्घा
स्कूल के बच्चों की
मन मोहक तस्वीरें
बाल मन, कच्चे भाव
फिर भी
बहुत बारीकी से उकेरा था.
अपनी कल्पनाओं के
अपनी संवेदनाओं के
औ' भावनाओं के
प्रतिबिम्ब बना -
कहीं शाम तो
कहीं सवेरा बिखेरा था.
एक कोने में रखी
एक कृति
जिसमें
एक मोमबत्ती जलकर
बहा रही थी मोम का दरिया,
साथ में खामोश
एक नारी की आँखों से
झरते अश्कों की लड़ियों से
बह रहा अश्क का दरिया था.
पास में बैठी
खामोश बाला ने
अपनी परिकल्पना को
यूं शब्दों में ढाला था --
'ये मेरी माँ है,
जो खामोश उम्र भर
रोती रही,
ये दरिया मैंने बनाया है.
रोकर भी
हमें अच्छा बनने की
सीख देती रही,
अँधेरे रास्तों में
रोशनी की किरण बनी रही,
एक मोमबत्ती की तरह
जो दूसरों को
रोशनी देने के लिए
खुद जलकर बह जाती है,
अपने अस्तित्व को
ख़त्म कर देती है.
दोनों का जीवन
एक जैसा ही है न.
मुझे जो लगा
मैंने उसी को बनाया है
माँ के साथ
इस मोमबत्ती को सजाया है.................'
बुधवार, 24 मार्च 2010
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3 टिप्पणियां:
एक मोमबत्ती की तरह
जो दूसरों को
रोशनी देने के लिए
खुद जलकर बह जाती है,
अपने अस्तित्व को
ख़त्म कर देती है.
दोनों का जीवन
एक जैसा ही है न.
वाह बहुत ही नायाब रचना...क्या बात है...एक माँ की मोमबत्त्ती से तुलना ,एक अभिनव प्रयोग है
सिर्फ माँ ही क्यों? ये तो हर संवेदनशील औरत का रूप है. जो अपने घर , परिवार और बच्चों के प्रति समर्पित है. कितने क्षण वो ऐसे ही जीती है, कभी बच्चों को लेकर बातें सुनती है, कभी बेटी को लेकर और कभी अपने मायके वालों को लेकर - तब वह चुपचाप रो लेती है किन्तु अपनी भूमिका उसी तरह सेनिभाती है. उस बच्ची ने सिर्फ अपनी माँ को ही देखा था. उस उम्र में उसकी दुनियाँ इतनी ही बड़ी है.
वाकई बच्चे के हित के लिये और उसे रोशन करने के लिये माँ मोमबत्ती ही तो है
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