वह माली बगीचे का
चुन चुन कर रोपी पौध थी,
फिर दिया पानी और खाद थी,
जिससे मिलें उन्नत सभी
पुष्पों, पलों से लदे वृक्ष.
पल्लवित पुष्पित हुए वे सभी
हर्ष से माली की आँखें
चमकने लगीं.
चुन-चुन कर पुष्पों के
हार बना पहनेगा वो
ऐसे सजीले स्वप्न सा
खोया किन्हीं ख्यालों में था.
सहसा कोई काँटा चुभा
फूलों के बीच में था फंसा
सिसकारी मुंह से निकली
एक बूँद रक्त की
धरा पर चू पड़ी
इस भरे बगीचे में
अपनी संतति से पोषित हुए
वृक्ष भी खड़े खामोश हैं.
कुछ तो लगता है
की जैसे वे सभी बेहोश हों.
डबडबाई आँखों से
माली देखता रह गया
कोई भी उसके आंसुओं के
मर्म को समझा न था.
जीवन निछावर कर गया
अब लगा
कि वह छल गया.
ये तो सिर्फ व्यामोह है.
जीवन का दिन तो ढल गया.
न तेरा रहा
न मेरा रहा.
ये बगीचा तो अब फल गया.
ये बगीचा तो अब फल गया.
3 टिप्पणियां:
बहुत ही मर्मस्पर्शी कविता......"
प्रणव सक्सैना
amitraghat.blogspot.com
कोई भी उसके आंसुओं केमर्म को समझा न था.
जीवन निछावर कर गयाअब
लगाकि वह छल गया.
ये तो सिर्फ व्यामोह है.
बहुत ही यथार्थवादी पंक्तियाँ....मन को झकझोर देने वाली...भावपूर्ण कविता.
बहुत भावपूर्ण .. अच्छी रचना !!
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