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शुक्रवार, 10 अक्तूबर 2008

नारी - व्यथा

जीवन जिया,
मंजिलें भी मिली,
एक के बाद एक
बस नहीं मिला तो
समय नहीं मिला।
कुछ ऐसे क्षण खोजती ही रही ,
जो अपने और सिर्फ अपने लिए
जिए होते तो अच्छा होता।
जब समझा अपने को
कुछ बड़े मिले कुछ छोटे मिले
कुछ आदेश और कुछ मनुहार
करती रही सबको खुश ।
दूसरा चरण जिया,
बेटी से बन बहू आई,
झूलती रही, अपना कुछ भी नहीं,
चंद लम्हे भी नहीं जिए
जो अपने सिर्फ अपने होते।
पत्नी, बहू और माँ के विशेषण ने
छीन लिया अपना अस्तित्व, अपने अधिकार
चाहकर न चाहकर जीती रही ,
उन सबके लिए ,
जिनमें मेरा जीवन बसा था।
अपना सुख, खुशी निहित उन्हीं में देखि
थक-हार कर सोचा
कुछ पल अपने लिए
मिले होते
ख़ुद को पहचान तो लेती
कुछ अफसोस से
मुक्त तो होती
जी तो लेती कुछ पल
कहीं दूर प्रकृति के बिच या एकांत में
जहाँ मैं और सिर्फ मैं होती.

4 टिप्‍पणियां:

बेनामी ने कहा…

हिन्दी ब्लोगिंग मे आप का स्वागत हैं . नारी ब्लॉग एक ग्रुप ब्लॉग आप भी इससे जुडे और अपने विचार कविता और गद्य मे वहाँ भी दे , ये कविता बहुत ही अच्छी हैं . मुझ से संपर्क करना हो तो freelancetextiledesigner@gmail.com पर मेल दे
we will send inivte to you for joining our community blogs

रंजू भाटिया ने कहा…

बहुत सही सच्ची कविता लिखी है आपने ..आपका स्वागत हैं यहाँ ..

दिनेशराय द्विवेदी ने कहा…

बधाई, सीधी सच्ची कविता के लिए। ऐसी ही कविताएं दीर्घ जीवी होती हैं।
एक यह शब्द पुष्टिकरण को हटा दें, यह टिप्पणी में बाधा है।

Daisy ने कहा…

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