मन स्थिर तो नहीं
लेकर दायित्वों का बोझ
चलना तो धर्म कहा जाता है,
सोचते हैं कि चल आज की परिधि में,
समेट लें अपने को और चुपचाप चलो,
पर ये आज ही तो है , जिसकी सीमाएँ अतीत से भविष्य तक फैली रहती हैं।
फिर कैसे हो समाधान इसका ?
सीमित आज में हो,
न अतीत और न आनेवाला कल
किसी पर हक नहीं तुम्हारा
फिर क्यों आशा का दीप जलाये बैठा जाय ।
अपना तो एक सपना है,
कोई नहीं अपना एक पल भी नहीं,
फिर क्यों तृष्णा में फँसाए ये जीवन
जीने के नये नये किरदारों की सोचें ।
शांत मन से कर्म कर
जो पल मिले, जो आज मिले
और जिओ जी भर कर
मनुज बन कर ही रहना होगा
हर पल जीवन सच जीना होगा ।
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