जीवन
एक बुलबुला है ,
जैसे बारिश की बूँदें
भरे हुए पानी में
अपने अस्तित्व को
एक बुलबुला बनकर
जीवित रखती हैं ,
उनके अंदर की प्राणवायु
उनके अस्तित्व का
आधार बना रहता है।
वह कितने छोटे छोटे बुलबुलों को
अपने में समाकर
बढ़ने लगता है।
जैसे मानव अपने अस्तित्व के साथ
और जीवनों को देकर अस्तित्व ,
एक से अनेक बनकर
जीवन के आधार बढ़ाता है।
किन्तु उसकी प्राणवायु
सबमें बँट कर
खुद में कम होने लगती है।
प्राणवायु के जाते ह
बुलबुला पानी के साथ पानी
बनकर बहने लगता है।
वैसे ही जीवन भी तो
चलती साँसों का खेल है।
वे कभी महीनों तक
सिर्फ साँसों के सहारे
जीवित कहे जाते हैं
जीवन उस काया में
शेष कहाँ होता है ?
वह तो संज्ञाशून्य सा
"है" और " थे"के
बीच झूलता रहता है
और
फिर कभी उस "थे" पर
मुहर लगती है और
जीवन जिनसे बना था
उन्हीं पञ्च तत्वों में समां जाता है।
एक बुलबुला है ,
जैसे बारिश की बूँदें
भरे हुए पानी में
अपने अस्तित्व को
एक बुलबुला बनकर
जीवित रखती हैं ,
उनके अंदर की प्राणवायु
उनके अस्तित्व का
आधार बना रहता है।
वह कितने छोटे छोटे बुलबुलों को
अपने में समाकर
बढ़ने लगता है।
जैसे मानव अपने अस्तित्व के साथ
और जीवनों को देकर अस्तित्व ,
एक से अनेक बनकर
जीवन के आधार बढ़ाता है।
किन्तु उसकी प्राणवायु
सबमें बँट कर
खुद में कम होने लगती है।
प्राणवायु के जाते ह
बुलबुला पानी के साथ पानी
बनकर बहने लगता है।
वैसे ही जीवन भी तो
चलती साँसों का खेल है।
वे कभी महीनों तक
सिर्फ साँसों के सहारे
जीवित कहे जाते हैं
जीवन उस काया में
शेष कहाँ होता है ?
वह तो संज्ञाशून्य सा
"है" और " थे"के
बीच झूलता रहता है
और
फिर कभी उस "थे" पर
मुहर लगती है और
जीवन जिनसे बना था
उन्हीं पञ्च तत्वों में समां जाता है।
3 टिप्पणियां:
बेहतरीन भाव
वाह !
आपकी इस प्रस्तुति को ब्लॉग बुलेटिन की कल कि बुलेटिन राहुल सांकृत्यायन जी का जन्म दिवस और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
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