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शुक्रवार, 16 अगस्त 2013

धरती का बोझ !

विशाल और महान
कब इंसान
आकार  से हुआ है ?
नहीं तो रावण का
कभी पराभव न होता .
ऊँचे कद से
सिर्फ ऊपर का देख सकते हैं
नीचे तो इंसान भी
अदने से औ'
छोटे नजर आते हैं।
भूल जाते हैं वे
मंजिले भले ऊंची हो
जमी से जुड़ कर चलो तो
कभी ठोकर नहीं लगती
कदम तो बढ़ते ही हैं
पर्वतों तक जाने वाले
रास्ते भी जमीन से ही जाते हैं।
कदम बढ़ते हैं
हौसलों से
सोच से
और आपकी इंसानियत से
नहीं तो
निम्न सोच ,
गिरे आचरण वाले
महलों में रहें
या उड़े आसमान में
धरती के बिना
इंसान दफन नहीं होता .
उसका धरती से रिश्ता
आने से लेकर
जाने तक
कभी ख़त्म नहीं होता।
इसलिए धरती पर रह कर
धरती पर ही चलें
तो आसमान की ऊँचाइयाँ भी
अपनी हो सकती है .
लेकिन
दर्प , अहंकार और मद
भ्रमित इंसान
जब धरती से उठ जाता है
तो 
धरती भी अपने को
उसके बोझ से 
मुक्त पाकर खुद को
हल्का महसूस करती है।


10 टिप्‍पणियां:

Sadhana Vaid ने कहा…

बहुत ही सारगर्भित एवँ चिंतनीय प्रस्तुति रेखा जी ! जो धरती से ऊपर उठ कर आसमान में चलने की कोशिश करते हैं वे कालान्तर में औंधे मुँह ज़मीन पर गिरते हैं ! बहुत ही सुंदर व प्रेरक रचना !

Anju (Anu) Chaudhary ने कहा…

सहमत हूँ आपकी बात से रेखा दी


फर्क हमको ही समझना होगा

Satish Chandra Satyarthi ने कहा…

धरती पर रह कर धरती पर ही चलें..
अच्छी कविता..

Pallavi saxena ने कहा…

हम तो इस पर कब की नज़र डाल चुके। सार्थक भाव अभिव्यक्ति मासी जी :)

प्रतिभा सक्सेना ने कहा…

सच की धरती ही आधार है -जिसके बिना किसी की गुज़र नहीं!

कालीपद "प्रसाद" ने कहा…

हर रास्ता धरती से ही होकर गुजरता है
latest os मैं हूँ भारतवासी।
latest post नेता उवाच !!!

Darshan jangra ने कहा…

सुन्दर प्रस्तुति

ओंकारनाथ मिश्र ने कहा…

इसलिए धरती पर रह कर
धरती पर ही चलें
तो आसमान की ऊँचाइयाँ भी
अपनी हो सकती है .

कितने सुन्दर शब्द हैं ये. गहन मनमंथन से ही ऐसी कवितायेँ उपजती है.

Asha Joglekar ने कहा…

पांव धरती पर रहना बहुत जरूरी है । दुष्टों से मुक्त हो कर धरती भी एपने को हलका अनुभव करती है । सुंदर रचना .

डॉ रजनी मल्होत्रा नैय्यर (लारा) ने कहा…

रेखा दीदी, लगातार सफ़र में रहते हुए , बीमार हो गयी आज कई दिनों बाद ब्लॉग पर आना हुआ है |
सहमत हूँ ,आपके उठाए गए मुद्दे सोचनीय हैं ......