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शुक्रवार, 30 मार्च 2012

मैं शिव नहीं !


जन्म लिया
फिर होश संभाला
कुछ आदर्श ' मूल्य
मेरे लिए अमूल्य थे
शायद प्रकृति ने भरे थे
जिया उनको
पिया हलाहल
इस जगत के विषपायी
शायद देख पाए,
दंश पर दंश दिए
'
मैं जीवन भर
लक्ष्य के सलीब
काँधे पे धरे
चलता ही रहा
पत्थरों की चोट भी
चुपचाप सहता रहा
व्यंग्य और कटाक्षों से
छलनी हुआ बार बार
विष बुझे वचनों के तीर
आत्मा में चुभते रहे
पर
अब तक शिव नहीं बन पाया
अब
वो हलाहल कंठ से
नीचे उतरने लगा
तब लगा कि
मैं शिव नहीं हूँ
अब बनाकर जीना है
जिनका दिया विष है
उन्हें ही
अब वापस करना है ,
मैं शिव नहीं हूँ
और हो भी नहीं सकता हूँ

6 टिप्‍पणियां:

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

गहन अनुभूति को शब्द दिये हैं ...

सदा ने कहा…

गहन भाव संयोजन लिए ..उत्‍कृष्‍ट अभिव्‍यक्ति ।

ashish ने कहा…

शिव कल्याणकारी है लेकिन त्रिनेत्रधारी भी है . अनुपम रचना .

vandana gupta ने कहा…

behad gahan abhivyakti

Udan Tashtari ने कहा…

गहरी अभिव्यक्ति!! उम्दा!

मुकेश कुमार सिन्हा ने कहा…

bahut gahre soch hain aapke:)