जो जीता किताबों में
वो कभी तन्हा नहीं होता।
किताबों की इबारत
होती है जुबान पर,
किरदारों में खोजते हें खुद को,
फिर करके मंथन
ऐसा नहीं ऐसा?
खुद ही देते हें दिशाएं,
लिखने पर किसी के
प्रश्न उठाते हें,
और फिर
खुद भी उत्तर भी सुझा देते हें।
तौलते हैं तराजू में
कीमत आँका करते हें।
खुद ही देकर
उन्हें कीमत खरीदा और बेचा करते हें।
जीते हें उन्हीं किरदारों में
उनके जुमले बदला करते हें।
कितने संवाद लिखते और मिटाते रहते हैं
किताबों में जो जीते हैं
वो कभी तन्हा नहीं होते हैं।
14 टिप्पणियां:
किताबों में जो जीते हैं
वो कभी तन्हा नहीं होते हैं।
अक्षरश: सही कहा है...बहुत ही बढि़या प्रस्तुति ।
वाह कितनी सुन्दर और सटीक बात कही है।
सही है जो किताबों के साथ है मानो स्वयं के साथ है। बढिया रचना।
किताबो का साथ ही सच्चा साथ साबित होता है ..
बहुत उम्दा और सटीक!
आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल मंगलवार के चर्चा मंच पर भी होगी!
सूचनार्थ!
किताबों में शब्द नहीं , जीवन के हर रास्ते होते हैं और कई भावनाएं - तन्हा कैसे होगा कोई
एक दम सौ प्रतिशत सच्ची बात...इस रचना के लिए बधाई रेखा जी.
नीरज
किताबों में जो जीते हैं
वो कभी तन्हा नहीं होते हैं।
....बिलकुल सच कहा है..किताब जैसा साथी जब पास हो तो कोई कैसे तन्हां रह सकता है...बहुत सुन्दर प्रस्तुति..
किताबों में जो जीते हैं
वो कभी तन्हा नहीं होते हैं।...निसंदेह ..... बिलकुल सच्ची बात.....
एक दम सही कहा आपने जो किताबों में जीते हैं वो कभी तन्हा नहीं होते है बचपन में भी सभी से यही सुना था किताबों से अच्छा और कोई दोस्त नहीं होता सार्थक प्रस्तुति ....समय मिले कभी तो आयेगा मेरी पोस्ट पर आपका स्वागत है http://mhare-anubhav.blogspot.com/
सही बात है किताबे है हमारी सच्ची मित्र होती है...
सटीक और सुंदर लेखन...
सही है ...किताबों में जीने वाले तन्हां नहीं हो सकते .
किताबों की बात हमेशा सुंदर ही होती है।
किताबों की उपादेयता पर सुन्दर रचना. अब की पीढ़ी तो उनसे मुह मोडती दिख रही है.
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