शिकायत करूँ क्या बहुत अपनों से,
गम में हमारे वे शरीक ही कहाँ थे?
खोजती रही आँखें कई मर्तबा दर पर,
मायूस ही रही तुम खड़े ही कहाँ थे?
तुमसे अच्छे तो दुश्मन थे ए दोस्त
जहाँ होना था तुमको वे वहाँ खड़े थे।
हाथ मेरे कंधे पे जो होता तुम्हारा
ज़ख्म हमारे इतने गहरे न होते .
एक तो ज़ख्म किस्मत ने दिया था,
दूसरे उसको बढ़ाने वाले तुम यहाँ थे।
7 टिप्पणियां:
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति!
इसको पढ़ने से पाठकों को सुख मिलेगा और हम जैसे तुकबन्दी करने वालों को निश्चितरूप से लिखने की नई ऊर्जा और प्रेरणा भी मिलेगी!
मन की व्यथा कह दी शिकायत मे……………ये संसार ऐसा ही है किसी का नही है…………सुन्दर ।
दर्द छलक रहा है हर पंक्ति में...
बहुत खूब ...
दर्द में डूब के लिखी रचना ..
isake har sher me man ka dard gutha hua hai.
बहुत ही खुबसूरत
और कोमल भावो की अभिवयक्ति......
रिश्तों से मिले दर्द को परिभाषित कर दिया
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