जिस धरती पर जीवन पाया,
पूर्णरूप से मानव बनकर,
सोच बढ़ी उन्नत मानव को
वायु, जल माटी लगी काटने।
उड़कर कहीं और जाने की
इच्छा लेने लगी अंगडाई,
दूर कहीं पर जाकर बसने
की बात मन में उग आई।
जननी, जनक, सहोदर छोड़े,
गालियाँ चौवारे रास न आये,
दूर चमकती धरा मन को भाई,
लगी आग वो है समझ न आई।
चलते चलते दावानल देखी,
जलते हुए वृक्षों के ऊपर,
पक्षी को यूं ही बैठे देखा,
चौंक गया थी मन में जिज्ञासा।
अचरज से पूछा उसने तब
पक्षी भाई ये कैसी बात?
जलता है ये वृक्ष धूधू कर
और जलते हैं इसके पात,
तुम क्यों संग जलते हो भाई,
जब पंख हों तुम्हारे पास।
खग बोले तब शीश उठा कर --
जब हमने खाए फल इसके,
और बीट से साने इसके पात,
अब यही है हमारा धर्म भाई
जलें और मरें इसी के साथ ।
जब खग खग में है प्रेम वतन से
फिर मानव तू क्यों भाग रहा है?
अपनी ही धरती से गद्दारी करके
मानव तू क्यों नहीं जाग रहा है ?
4 टिप्पणियां:
जागरूकता के लिए प्रेरक आह्वान.
जब खग खग में है प्रेम वतन से
फिर मानव तू क्यों भाग रहा है?
अपनी ही धरती से गद्दारी करके
मानव तू क्यों नहीं जाग रहा है ?
सुन्दर सार्थक सन्देश दिया है रचना के माध्यम से। बधाई।
जागरूक करती अच्छी रचना ..
कविता और उसके भाव प्रभावित करते हैं।
एक टिप्पणी भेजें