सोचा करती हूँ,
अपने जीवन में
इस जग में
कुछ ऐसा कर सकती।
इस धरती की कोख में
बीज प्यार का बो कर
उसमें खाद
ममता की देती।
वृक्ष मानवता के
उगा उगा कर
एक दिन मैं
इस धरती को भर देती।
पानी देती स्नेह , दया का
हवा , धूप होती करुणा की
ममता की बयार ही बहती
मधुमय इस जग को कर जाती।
उसमें फिर
पल्लव जो आते
खुशियों की बहार ही लाते।
शान्ति, प्रेम के मीठे फल से
धरती ये भर जाती।
उससे निकले बीज रोपती
दुनियाँ के
कोने कोने में
जग में फैली
नफरत की
अदृश्य खाई भर देती।
सद्भाव, दया की
निर्मल अमृत धारा से
मानव मन में बसे
कलुष सोच को धोती,
निर्मल सोच की लहरों से
सम्पूर्ण विश्व भर देती।
मानव बस मानव ही होते
इस जग में
शत्रु कभी न होते
इस धरा पर
जन्मे मानव
बन्धु-बन्धु ही कहते।
ऐसी सृष्टि भी होती
अपना जीवन जीते निर्भय
सबल औ' निर्बल सभी
कथा प्रेम की रचते।
शब्दों से गर
मिटती नफरत
कुछ ऐसा कर जाती
मानव के प्रति-
मानव में
प्रेम ही प्रेम भर जाती।
बुधवार, 4 नवंबर 2009
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9 टिप्पणियां:
शब्दों से गर
मिटती नफरत
कुछ ऐसा कर जाती
मानव के प्रति-
मानव में
प्रेम ही प्रेम भर जाती।
काश कि ऐसा हो पाता तो कितना अच्छा होता
मिटती दुश्मनि मानवता की मानवता से
बनता रिश्ता बेगानो से अपनो का।
काश ऐसा होता? हम सब ऐसे सपने ही देख सकते हैं बस।
पानी देती स्नेह , दया का
हवा , धूप होती करुणा की
ममता की बयार ही बहती
मधुमय इस जग को कर जाती।
BAHUT SUNDAR !
बहुत सुन्दर....
पानी देती स्नेह , दया का
हवा , धूप होती करुणा की
ममता की बयार ही बहती
मधुमय इस जग को कर जाती।
बहुत ही सुन्दर ख्यालों से सजी यह पंक्तियां, काश की हम ऐसा कर पाते, शब्दों से मिट जाती दूरियां तो सारी मुश्किलें खत्म हो जाती, आभार ।
बहुत अच्छी और पावन सोच...बधाई इस रचना के लिए...हम सब का येही सपना है...काश ये सच हो...
नीरज
काश इस कविता को पढ़कर सबकी आंखें खुल जातीं
---
चाँद, बादल और शाम
शब्दों से गर
मिटती नफरत
कुछ ऐसा कर जाती
मानव के प्रति-
मानव में
प्रेम ही प्रेम भर जाती।
शब्द सक्षम हैं नफ़रत को मिटाने में ये नफरत बढाते भी है और नफ़रत मिटाते भी हैं
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति दी है आपने
बहुत ही संवेदनशील रचना....सुखद आशाओं में पगी सोच...सच काश ऐसा हो पाता...फिर ज़िन्दगी एक ख़ूबसूरत ख्याल नहीं हकीकत होती
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