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गुरुवार, 12 नवंबर 2009

पीड़ा न बाँट पाने का अहसास

समंदर मैंने देखे हैं,
मगर बहुत दूर से,
उसकी गहराई में
डूबकर नहीं देखा।

रेत के किनारों को
भी देखा है,
मगर बहुत दूर से
उन्हें छू कर नहीं देखा।

हाथ से फिसलती रेत
सुना तो बहुत है
अहसास मगर कभी
इसका करके नहीं देखा.

हाँ
एक और समंदर
जो हर जीवन में
अनदेखा पर
अहसासों में रहा करता है।
उस समंदर में
डूबने के अहसास को
जिया है मैंने ।

वे समंदर
ग़मों, कष्टों औ' पीड़ा के
होते है।
जो हर दिल की
पहुँच से बहुत दूर
होते हैं।

उस समंदर में
डूबते हुए
पल पल मरने
का अहसास
किया है मैंने।

हाथ से फिसलती हुई
एक
जिन्दगी को
न रोक पाने
की मजबूरी के जहर
का स्वाद
लिया है मैंने ।

पल पल किसी को
मौत के मुंह जाने के
दारुण दुःख के
अहसास को
जिया है मैंने।

हम नाकाम,
नकारा, बेबस से
उन्हें मरता हुआ
देखते रहे चुपचाप।

उन्हें पीड़ा सहते हुए देख
उन पीड़ाओं को
न बाँट पाने की विवशता के
विष को पिया है मैंने।
हाँ
हम कठपुतली के तरह
नाचते रहे
औ' भवितव्यता ने
अपना काम कर दिया।
उन्हें मुक्ति कष्टों से दे दी।
औ' हम
उन कष्टों की यादों को
हाथ से फिसलती हुई
रेत की तरह
आज भी छोड़ नहीं पाये हैं.

1 टिप्पणी:

M VERMA ने कहा…

उन कष्टों की यादों को
हाथ से फिसलती हुई
रेत की तरह
आज भी छोड़ नहीं पाये हैं.
एहसास और भावनाओ का समंवय
बहुत सुन्दर रचना