आज भी इंसान
है कितना नादान
मौत से दो कदम खड़ा है,
फिर भी अपनी जिद पर अड़ा है ।
शेखी समझता है कानून तोड़ने में
क्या मिलता है नहीं जानता जोड़ने में।
वो रहम नहीं करेगा ,
गर लग गया गले से ,
फिर तुम कहाँ औ बाकी सब कहाँ ?
जिये हो जिनके लिए ,जीते है जो तुम्हारे लिए ,
कुछ उनकी भी सोचो ।
देखना तो दूर छूने से करेंगे इंकार,
किसी लावारिस की तरह
राख हो जाओगे।
खुद जिओ औरों को भी जीने दो
कभी खत्म होगा ये कहर
तब की देख तो लेना सहर।
नहीं तो
तस्वीरों से चिपट कर रोयेंगे अपने
हाथ में राख लिए कल के सपने ।
कदर कर लो जिंदगी की,
दुबारा नहीं मिलेगी,
जो हाथ में है सहेजो उसको,
खुद भी जिओ औरों को जीने दो ।
है कितना नादान
मौत से दो कदम खड़ा है,
फिर भी अपनी जिद पर अड़ा है ।
शेखी समझता है कानून तोड़ने में
क्या मिलता है नहीं जानता जोड़ने में।
वो रहम नहीं करेगा ,
गर लग गया गले से ,
फिर तुम कहाँ औ बाकी सब कहाँ ?
जिये हो जिनके लिए ,जीते है जो तुम्हारे लिए ,
कुछ उनकी भी सोचो ।
देखना तो दूर छूने से करेंगे इंकार,
किसी लावारिस की तरह
राख हो जाओगे।
खुद जिओ औरों को भी जीने दो
कभी खत्म होगा ये कहर
तब की देख तो लेना सहर।
नहीं तो
तस्वीरों से चिपट कर रोयेंगे अपने
हाथ में राख लिए कल के सपने ।
कदर कर लो जिंदगी की,
दुबारा नहीं मिलेगी,
जो हाथ में है सहेजो उसको,
खुद भी जिओ औरों को जीने दो ।
8 टिप्पणियां:
हम नहीं सुधरेंगे वाली बात है। लोगों ने शिक्षा ग्रहण की है पर दीक्षा का नितांत अभाव है। एक समुदाय तो पुराने समय के अनुसार ही चलना चाहता है। परिवर्तन समय की आवश्यकता है सो उसके अनुसार अपनी जीवन चर्या में भी परिवर्तन अनिवार्य है। धर्म की आड़ लेना गलत है। अंतत: रचना सामयिक और सार्थक है।
तीखी रचना पर सच है बिलकुल ... पता नहि किस बात की ईगो दिखाते हैं हम ... क्या सुख मिलता है जबकि दुःख आया तो बहुत गहरा होगा तब भी नहीं मानते ...
आभार ब्लॉग पर आने के लिए ।
आभार नासवा जी ।
काश कि हम सुधरने वालों में शामिल हो जाते.
जो हाथ में है सहेजो उसको,
खुद भी जिओ औरों को जीने दो ।
सही बात है !
प्रेरक रचना. जीओ और जीने दो.
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