सरिता तीरे
धीरे धीरे
मंद प्रवाहित
सुखद समीरे ,
लहरें थामें अपनाआँचल
साक्षी हैं
ये लहरें औ' जल।
जीवन क्रम भी
उदित सूर्य
तप्त सूर्य
या फिर
शांत रक्तवर्ण सूर्य से
जुड़ा जो रहता है।
ये सरिता
अपने जल में
जीवन के हर आश्रम को
चाहे वो
ब्रह्मचर्य , गृहस्थ ,वानप्रस्थ और संन्यास हों
हर एक को
एक दिन के सूर्योदय से
सूर्यास्त तक जी लेती हैं।
रोज जीती है
पर कभी क्षरित नहीं होती.
मानव जीवन की
समरस , समतल , सम्प्रवाह लिए
देती है एक सन्देश
सब कुछ समाहित करो,
अपने अंतर में
सत्य - असत्य ,
क्षम्य - अक्षम्य,
और पाप और पुण्य भी।
6 टिप्पणियां:
हार्दिक मंगलकामनाओं के आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल शुक्रवार (03-04-2015) को "रह गई मन की मन मे" { चर्चा - 1937 } पर भी होगी!
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सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
धरती पर जमी हर वस्तु कुछ सीख दे ही जाती है..
वाकई सरिता जीवन के हर आश्रम को जी लेती है और चलती रहती है सतत ..उम्दा प्रस्तुति
बिलकुल सत्य लिखा है आपने.
sundar n sarthak sandesh ...
वाह!बहुत ही सुंदर एवं सार्थक अभिव्यक्ति।
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