दर्द पेड़ों का
समझ नहीं सकते ,
बदलते हुए मौसम ने
उन्हें पत्तों से जुदा कर दिया .
मेरे आँगन में खड़े
वो दो अमरूद के पेड़
जिनके आंसुओं की जगह
पत्ते गिर रहे हैं
पतझड़ गुजरे
महीनों हो गए।
फिर से फूलने के दिन हैं
और वे भादों में
लहलहाने और फूलों से लदे होने के
अहसास को भूल गए।
अगहन में
जब बच्चे घर आएंगे
तो उनको क्या मुंह दिखाएंगे ?
न पात हैं ,
न फल होंगे ,
अपने नाम पर
शर्म आएगी हमें।
प्रकृति बदली ,
हम वहीँ खड़े हैं।
इस दर्द को जी रहे हैं .
समझ नहीं सकते ,
बदलते हुए मौसम ने
उन्हें पत्तों से जुदा कर दिया .
मेरे आँगन में खड़े
वो दो अमरूद के पेड़
जिनके आंसुओं की जगह
पत्ते गिर रहे हैं
पतझड़ गुजरे
महीनों हो गए।
फिर से फूलने के दिन हैं
और वे भादों में
लहलहाने और फूलों से लदे होने के
अहसास को भूल गए।
अगहन में
जब बच्चे घर आएंगे
तो उनको क्या मुंह दिखाएंगे ?
न पात हैं ,
न फल होंगे ,
अपने नाम पर
शर्म आएगी हमें।
प्रकृति बदली ,
हम वहीँ खड़े हैं।
इस दर्द को जी रहे हैं .
8 टिप्पणियां:
कमाल का लिखा है
बहुत सुन्दर... बहुत ही सुन्दर कविता है दी.
वाह ...खूब लिखा है
बोलते हुओं का दर्द नहीं समझते तो मूक पेड़ों का दर्द क्या समझेंगे?
बहुत सुन्दर!
बहुत बढ़िया....
बहुत खुबसुरत ....क्या कहने
अनुभूति को सुन्दर शब्द दिए हैं.
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