अंतर की ज्वालामुखी
जब पिघलती है
लावा बन
वो कलम से
आग उगलती है।
वाह ! वाह !
सुनकर वो
सिर पटक कर
रो देती है -
दर्द सहा उसने ,
जहर पिया उसने ,
मन की तपिश में झुलसी
क्या उसकी
तपिश को
किसी ने महसूस किया ?
नहीं बची संवेदनाएं
जो उसकी कलम से निकले
लफ्जों की
तपिश , बेबसी और खामोश बगावत को
समझा तो होता ,
रोता नहीं फिर भी
काँधे पर हाथ रखा तो होता।
सहने का और साहस मिलता।
लेकिन वो वह बहरूपिया बनी।
जो खुद रोता था
अपनी बेबसी पर
लोगों ने उसे तमाशे का हिस्सा जाना।
2 टिप्पणियां:
भावप्रणव सुन्दर रचना।
बहुत सुंदर और सामयिक रचना
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