क्यों बदल देते हें लोग
अपनी आस्था को
कपड़ों की तरह,
जहाँ आंच आती दिखी
अपने दमकते भविष्य पर
धीरे से निकल लिए
और शामिल हो लिए दूसरे जुलूस में।
वे भविष्य निर्माता बनेगें ,
इस वतन पर शासन करेंगे।
उनकी आस्था का क्या विश्वास है?
क्या नहीं कल ये
इस देश और जन के विश्वास को न बेचेंगे?
दंभ है उनमें,
धन से तिजोरी जो भरी हें।
बस थोड़े समय के लिए
हाथ जोड़ लें,
पैर चुन लें,
विनम्र हो कर झुक लें,
कल जब अपना होगा
ये नजर नहीं आयेंगे
और हम अपने निर्णय पर
सर धुनते नजर आयेंगे
क्योंकि देश हम इनके पास
अगले पांच वर्ष के लिए
गिरवी जो रख चुके हें।
गुरुवार, 16 फ़रवरी 2012
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5 टिप्पणियां:
बहुत सटीक और सार्थक रचना!
आपके इस उत्कृष्ट लेखन के लिए आभार ।
बिल्कुल सही कह रही हैं आप्।
सटीक बात काही है ॥
सच्ची बात कहती सार्थक रचना...
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