तेरी आवाज सुनी तो सुकून आया दिल को,
वर्ना तुझे देखे हुए तो जमाना गुजर गया।
कभी गूंजती थी किलकारियां इस आँगन में,
वर्षों गुजर चुके है इसमें अब सन्नाटा पसर गया।
कभी गुलज़ार थी ये इमारत भी जिन्दगी से,
अब गुजरता ही नहीं है मानो वक़्त ठहर गया।
बसाया था ये घर दो से फिर हम चार हुए,
फिर दो में सिमट गए तो दिल सिहर गया।
आशियाँ तो बनाया था तेरे ही लिए मैंने,
जिन्दगी पले इसमें ये ख़्वाब ही बिखर गया।
वर्ना तुझे देखे हुए तो जमाना गुजर गया।
कभी गूंजती थी किलकारियां इस आँगन में,
वर्षों गुजर चुके है इसमें अब सन्नाटा पसर गया।
कभी गुलज़ार थी ये इमारत भी जिन्दगी से,
अब गुजरता ही नहीं है मानो वक़्त ठहर गया।
बसाया था ये घर दो से फिर हम चार हुए,
फिर दो में सिमट गए तो दिल सिहर गया।
आशियाँ तो बनाया था तेरे ही लिए मैंने,
जिन्दगी पले इसमें ये ख़्वाब ही बिखर गया।
21 टिप्पणियां:
आपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
प्रस्तुति भी कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
कल (30-5-2011) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
अवगत कराइयेगा और हमारा हौसला बढाइयेगा।
http://charchamanch.blogspot.com/
बेहतरीन अभिव्यक्ति!
कभी गुलज़ार थी ये इमारत भी जिन्दगी से,
अब गुजरता ही नहीं है मानो वक़्त ठहर गया।
बसाया था ये घर दो से फिर हम चार हुए,
फिर दो में सिमट गए तो दिल सिहर गया।
great.....
afsos ki hum samjh nai paate, jindgi kya hai!!!!!!!!
बसाया था ये घर दो से फिर हम चार हुए,
फिर दो में सिमट गए तो दिल सिहर गया।
-कितना सच कहा....बहुत खूब!!
कभी गुलज़ार थी ये इमारत भी जिन्दगी से,
अब गुजरता ही नहीं है मानो वक़्त ठहर गया।
is ghar ke aage khade hoker jo aapne mahsoos kiya , uske taar taar bol rahe hain
बहुत बेहतरीन अभिव्यक्ति| धन्यवाद|
बसाया था ये घर दो से फिर हम चार हुए,
फिर दो में सिमट गए तो दिल सिहर गया।
बहुत अच्छी अभिव्यक्ति
बसाया था ये घर दो से फिर हम चार हुए,
फिर दो में सिमट गए तो दिल सिहर गया।
आज का सच बहुत खूबसूरती से उकेरा है...बहुत सुन्दर और मर्मस्पर्शी रचना..
क्या खू़ब कहा है, “जिन्दगी पले इसमें ये ख़्वाब ही बिखर गया।”
कभी गुलज़ार थी ये इमारत भी जिन्दगी से,
अब गुजरता ही नहीं है मानो वक़्त ठहर गया।
बसाया था ये घर दो से फिर हम चार हुए,
फिर दो में सिमट गए तो दिल सिहर गया।
बहुत सुन्दर पंक्तियाँ! शानदार और भावपूर्ण रचना! बधाई!
बसाया था ये घर दो से फिर हम चार हुए,...behtreen abhivyakti jindagi ke bahut kareeb.ek bhaavpoorn kavita.charcha manch ke madhyam se aapke blog par aai hoon,aakar bahut achcha laga.mere blog par bhi aapka swagat hai.
"बसाया था ये घर दो से फिर हम चार हुए,
फिर दो में सिमट गए तो दिल सिहर गया।"
आधुनिक कल का एक बहुत ही सटीक और मार्मिक चित्रण.आज महानगरों की कौन कहे,ग्रामीण जीवन में भी यह त्रासदी धीरे-धीरे पाँव पसार रही है.
आदरणीया रेखा श्रीवास्तव जी नमस्कार सुन्दर रचना -निम्न में दिल को छू लेने वाले भाव -बाद में यही हो जाता है -मन यादों के सहारे दिन काटता रहता है -शुभ कामनाएं -बधाई कृपया नीचे की दूसरी पंक्ति को समझाएं
(1)
बसाया था ये घर दो से फिर हम चार हुए,
फिर दो में सिमट गए तो दिल सिहर गया।
(2)वर्षों गुजर चुके है इसमें अब पसर गया।
शुक्ल भ्रमर ५
धन्यवाद भ्रमर जी , आपने इस ओर ध्यान आकर्षित किया वहाँ पर "सन्नाटा" शब्द होना चाहीहे था जो छूट गया था. उसको मैंने ठीक कर दियाहै.
चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी प्रस्तुति मंगलवार 31 - 05 - 2011
को ली गयी है ..नीचे दिए लिंक पर कृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया ..
साप्ताहिक काव्य मंच --- चर्चामंच
आशियाँ तो बनाया था तेरे ही लिए मैंने,
जिन्दगी पले इसमें ये ख़्वाब ही बिखर गया।
वाह, बहुत खूब ! संवेदनशील रचना !
ग़ज़ल में अब मज़ा है क्या ?
बसाया था ये घर दो से फिर हम चार हुए,
फिर दो में सिमट गए तो दिल सिहर गया।
kammal ka dard hai in panktiyun main!
badhai swikare!
aaj ka yahi sach hai.
जीवन का सच बता गयी आपकी काव्य रचना .....आभार !
बसाया था ये घर दो से फिर हम चार हुए,
फिर दो में सिमट गए तो दिल सिहर गया।
बेहतरीन अभिव्यक्ति!
ये कहने भर से कि आज कल ये दर्द घर घर की कहानी है, दर्द की चुभन को कम नहीं कर देता। कोई तो पल होता जब दिल न थर्राता
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