मनुष्य
जीवन सत्य से
आँखें मूँद कर
जब चलने लगता है।
किस गुमान में
बुरी तरह से
विकृत भावों से
जब घिरने लगता है।
मूल्य खो जाते हैं,
आस्थाएं दम तोड़ देती हैं,
विश्वास भी टुकड़े टुकड़े
होकर गिरने लगता है।
मानवता रोती है,
गिड़गिड़ाते हैं सुजन
दर्प और दंभ के साए में
खुद ही जलने लगता है।
शेष कुछ नहीं,
विवेक भी मूक
खुली आँखों से
अंधत्व की ओर जाते
रास्तों को देखने लगता है।
जीवन सत्य से
आँखें मूँद कर
जब चलने लगता है।
किस गुमान में
बुरी तरह से
विकृत भावों से
जब घिरने लगता है।
मूल्य खो जाते हैं,
आस्थाएं दम तोड़ देती हैं,
विश्वास भी टुकड़े टुकड़े
होकर गिरने लगता है।
मानवता रोती है,
गिड़गिड़ाते हैं सुजन
दर्प और दंभ के साए में
खुद ही जलने लगता है।
शेष कुछ नहीं,
विवेक भी मूक
खुली आँखों से
अंधत्व की ओर जाते
रास्तों को देखने लगता है।
3 टिप्पणियां:
मानवता रोती है,
गिड़गिड़ाते हैं सुजन
दर्प और दंभ के साए में
खुद ही जलने लगता है।
सटीक लिखा है ..यूँ ही भटक कर ज़िदगी तमाम हो जाती है
सही बात कही आपने.
सादर
सत्य से बिमुख होना जीवन को कठिनाई में डाल देना जैसा ही है .
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