नव पल्लव सा
अद्भुत बचपन
और चले
दो चार कदम तो
डाल पकी औ'
बन गया पौधा,
अपने पैरों खड़ा हुआ
फिर तो
जीवन के चरणों सा
नित नव विकसित
किशोर, युवा सा
वृक्ष वही सम्पूर्ण हुआ.
शाखों पे शाखें
पल्लव की उस घनी छाँव में
अपने ही पौधों को पाला
आया माली काट ले गया
अपने से अलग कर गया
औ' फिर
दूर दिया था रोप उन्हें
दूर सही
थे तो वे अपने ही सामने.
देखा उनको बढ़ते
लदते पल्लव औ' पुष्पों से
फलों से लदकर
झुक गए कंधे
हवा चली
फिर आई ऐसी आंधी
सारे पत्ते दूर हो गए
बने ठूंठ हम
आज खड़े हैं
अपनी ही पहचान भूल कर.
पल्लव ही थे पहचान हमारी
नाम हमारा शेष कहाँ
किस पल आये अंधड़ मौत का
औ' हम यहीं कब बिछ जाएँ.
10 टिप्पणियां:
सुन्दर रचना।
सारे पत्ते दूर हो गए
बने ठूंठ हम
आज खड़े हैं
अपनी ही पहचान भूल
bilkul sahi, bahut hi badhiyaa
sundar atisundar
ak jeevn yatra sa si lgi yah kvita
waah rekha ji bahut sundar rachna...
बहुत सुन्दर रचना
बने ठूंठ हम
आज खड़े हैं
अपनी ही पहचान भूल
बहुत ही गहरे भाव लिए है यह कविता...
यह रचना बहुत अच्छी लगी...दिल को छू गई....
रचना पसंद आई मेरी अभिव्यक्ति सफल हुई.
आप सबको धन्यवाद.
सारे पत्ते दूर हो गए
बने ठूंठ हम
आज खड़े हैं
अपनी ही पहचान भूल कर.
जीवन के सत्य को बताती एक यथार्थ रचना...
एक टिप्पणी भेजें