नारी हूँ
तो यही प्रश्न है ,
जीवन समर्पित किया
अपनी हर उम्र में
बेटी बनी,
एक गर्भ से,
एक घर में,
जन्म लेकर
पली बढ़ी
सब कुछ किया.
पर कही पराया धन ही गयी.
बेटा सब कुछ पा गया.
उसका वही घर बना।
मुझको कहा गया --
ऐसा 'अपने घर ' जाकर करना
ये मेरे वश में नहीं.
पराया धन
अपनी समझ से
सब कुछ देकर विदा किया
जिनकी अमानत थी,
उनको बुलाकर सौप दिया.
इस घर में आकर
घर की दर औ' दीवारें
अपनेपन से सींच दीं,
यहाँ भी सब कुछ किया
पति के परिवार में
खोजे और सोचे
अपने रिश्ते
अपनापन और अपना घर
जिसकी बात बचपन से सुनी थी.
किन्तु
सास न माँ बन सकी,
पिता , बहन औ' भाई
का सपना अधूरा ही रहा.
इस यथार्थ की चाबुक
'क्या सीखा 'अपने घर' में?'
'वापस 'अपने घर ' जा सकती हो.'
'अपने घर ' की बात मत कर'
'अपना घर' समझा होता तो?'
जब बार बार सुना
औ' हर घर में सुना
सिर्फ मैंने ही सुना
तब
खुद को कटघरे में खड़ा किया
मेरा घर कौन सा है?
जहाँ जन्मी पराई थी,
अपने घर चली जायेगी एकदिन.
जहाँ आई वहाँ भी......
अपने घर को न खोज पायी.
जन्म से मृत्यु तक
बलिदान हुई
पर एक अपने घर के लिए
तरसते तरसते
रह गयी
क्योंकि वह तो
सदा पराई ही रही.
किसी ने अपना समझा कहाँ?
बिना अपने घर के जीती रही,
मरती रही जिनके लिए,
वे मेरे क्या थे?
एक अनुत्तरित सा यक्ष प्रश्न
हमेशा खड़ा रहेगा.
अपनी हर उम्र में
बेटी बनी,
एक गर्भ से,
एक घर में,
जन्म लेकर
पली बढ़ी
सब कुछ किया.
पर कही पराया धन ही गयी.
बेटा सब कुछ पा गया.
उसका वही घर बना।
मुझको कहा गया --
ऐसा 'अपने घर ' जाकर करना
ये मेरे वश में नहीं.
पराया धन
अपनी समझ से
सब कुछ देकर विदा किया
जिनकी अमानत थी,
उनको बुलाकर सौप दिया.
इस घर में आकर
घर की दर औ' दीवारें
अपनेपन से सींच दीं,
यहाँ भी सब कुछ किया
पति के परिवार में
खोजे और सोचे
अपने रिश्ते
अपनापन और अपना घर
जिसकी बात बचपन से सुनी थी.
किन्तु
सास न माँ बन सकी,
पिता , बहन औ' भाई
का सपना अधूरा ही रहा.
इस यथार्थ की चाबुक
'क्या सीखा 'अपने घर' में?'
'वापस 'अपने घर ' जा सकती हो.'
'अपने घर ' की बात मत कर'
'अपना घर' समझा होता तो?'
जब बार बार सुना
औ' हर घर में सुना
सिर्फ मैंने ही सुना
तब
खुद को कटघरे में खड़ा किया
मेरा घर कौन सा है?
जहाँ जन्मी पराई थी,
अपने घर चली जायेगी एकदिन.
जहाँ आई वहाँ भी......
अपने घर को न खोज पायी.
जन्म से मृत्यु तक
बलिदान हुई
पर एक अपने घर के लिए
तरसते तरसते
रह गयी
क्योंकि वह तो
सदा पराई ही रही.
किसी ने अपना समझा कहाँ?
बिना अपने घर के जीती रही,
मरती रही जिनके लिए,
वे मेरे क्या थे?
एक अनुत्तरित सा यक्ष प्रश्न
हमेशा खड़ा रहेगा.
3 टिप्पणियां:
किन्तु
सास न माँ बन सकी,
पिता , बहन औ' भाई
का सपना अधूरा ही रहा.
इस यथार्थ की चाबुक
'क्या सीखा 'अपने घर' में?'
'वापस 'अपने घर ' जा सकती हो.'
'अपने घर ' की बात मत कर'
'अपना घर' समझ होता तो?'
bahut achhi rachna.
Naari man ki vyatha ka sundar chitran kiya hai aapne.
Wastavik roop se aaj bhi bahut kuch nahi badla dikhta hai.. Aaj bhi striyon par hote atyachar dekh man bahut dravit hota hai....
बहुत ही मार्मिक कविता है....हर नारी के मन की व्यथा....जहाँ रहें घर को सजाने संवारने,संभालने में ही लगी होती है...पर उसका ठौर कोई नहीं...वह सिर्फ कर्तव्य निभा सकती है...अधिकार नहीं जाता सकती..जरा सा अधिकार जताया नहीं कि...सुना दिया जाता है....कि ये घर तुम्हारा नहीं...
"जन्म से मृत्यु तक
बलिदान हुई
पर एक अपने घर के लिए
तरसते तरसते
रह गयी
क्योंकि वह तो
सदा पराई ही रही"
ह्रदय विदारक सत्य - सोच और भावों को सादर नमन
एक टिप्पणी भेजें