आज के युग में
कुछ ईसा बाकी हैं
जो
मानवता की सलीबें
अपने कंधे पर उठाये
आज भी घूम रहे हैं.
बगैर ये सोचे
की कल क्या ये हमारे लिए
साथ होंगे?
इससे बेखबर
जीवन भर
शक्ति भर
तन-मन-धन से
परोपकार करते रहे.
पर वक़्त किसके साथ है?
अपने वक़्त पर सबको परखा
परीक्षा की घड़ी
जब उसके सामने थी
हर द्वार खटखटाया
आवाजें दीं
चीख-चीख कर सबको बुलाया
पर
हाय से उसकी किस्मत
मानवता के दुश्मनों ने
उसी सलीब पर चढ़ा दिया.
निःशब्द-निस्तेज-निष्प्राण
वह मसीहा इतिहास बन गया.
फिर
उसकी मूर्ति बनी
अनावरण किया गया
राजनीति के तवे पर रोटियां सिंकी.
'वह भले थे,
जो बना सबके लिए किया,
ऐसे सज्जन इस कलयुग मैं
कभी - कभी पैदा होते हैं.'
इन शब्दों से
उसका मान और सम्मान किया गया
उसके जीवन भर के कर्मों के लिए
इतना ही काफी था क्या?
पर यही क्या कम है?
एक चौराहे को
उसका नाम दे दिया,
लोग याद करेंगे
एक और मसीहा भी हुआ था.
जो सिर्फ दूसरों औ' दूसरों के लिए
जिया था और मारा था.
मंगलवार, 16 फ़रवरी 2010
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