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मंगलवार, 15 अक्तूबर 2024

हारा हुआ वजूद!

 #हारा हुआ वजूद!


वह चल दिया ,

जब दुनिया से,

कुछ तो रोये,

लहू के आँसू दिल से बहे

खारे आँख से।

एक हारा हुआ इंसान था वो

सब कुछ दे गया,

जो अपने साथ गया 

वो उसके काम थे।

दिया था सब कुछ

जो लिया था जिंदगी से,

कर्ज़ तो उतार कर वह चल दिया।

लज्जित हुआ था,

अपनी निगाह में 

जश्न जीत की मनाया था गैर ने।

देते रहे दिलासा 

जो कुछ अपने न थे,

जिनके लिए जिया

वह जन्म से अपने थे,

ले लिया मुनाफा वज़ूद से

मैय्यत किसी की काम नहीं आती।

दो मुट्ठी मिट्टी भी हम क्यों डालें?

अब तो वह किसी काम न आयेगा।


मंगलवार, 3 सितंबर 2024

यादों का प्रवाह!

यादें 
बस एक प्रवाह होती हैं,
बहते हुए समंदर में 
जीवन के गुजर गए 
वक्त की गवाह होती हैं। 

एक आती है 
तो 
उसी से जुड़ी सैकड़ों 
यादें एक सैलाब की तरह 
कभी दिमाग में उमड़ कर 
सिमट नहीं सकती हैं ,
वे इन आँखों से जिया 
एक जीता हुआ ख़्वाब होती हैं। 

अच्छी होती हैं 
या फिर बुरी , 
कटु होती लेकिन 
गुजरे हुए पलों का बहाव होती हैं। 

ठहरती कब हैं? चाहे जैसी भी हों 
जीवन का एक लगाव होती हैं। 
छूटे हुए वापस 
अदृश्य ही सही 
वापस लाने का एक घुमाव होती हैं। 
वक्त वक्त पर उभर कर जेहन में 
मथ कर मन को फिर 
भूल जाने का एक दुर्भाव होती हैं। 
यादें 
सिर्फ एक प्रवाह होती हैं। 

संशय मन का!

रोज उठाती हूँ कलम, 

कुछ नया रचूँ, 

शुरू होती है जंग,

शब्दों और भावों में,

नहीं नहीं बस यही रुकूँ, 

समझौता तो हो जाए।

शब्दों का गठबंधन 

भावों का अनुबंधन,

एक नहीं हो पाता।

जो रचता ,

रच न पाता। 

कैसा है संशय मन में? 

आखिर कैसा हो? 

जो लिखूँ?

कभी झाँकती सूनी आंखों में, 

कभी पढ़ूँ उन कोरे सपनों को, 

रंग भरूँ क्या नए रूप से 

साकार करूँ उन सपनों को 

कोई ऐसा गीत रचूँ क्या? 

आशा का दीप बनाकर 

रोशन उनकी आशा कर दूँ, 

या 

फिर प्रेरणा भरकर 

उसमें उसके अंर्त में 

एक ज्योति जलाऊँ,

इससे पहले स्याही सूखे, 

कुछ तो सार्थक रच जाऊँ।


रेखा श्रीवास्तव

सोमवार, 19 अगस्त 2024

सूना रक्षाबंधन!


ये है ऐसा रक्षाबंधन

आँसुओं से भरी आँखें

हाथ सजी थाली लिए 

जलाये दीप

रखी उसमें राखियाँ

वो मीठी सी प्यार  पगी 

मिठाई और रोली चावल

सब उदास से सजे है, 

बेरौनक

मन अपना भी है आँसू आँसू,

कहाँ होंगी वे कलाइयाँ , 

जिनके रहते हम लड़े थे, भिड़े थे या बचपन से शिकायतों का पिटारा लिए

माँ के सामने रखें थे।

जब आता रक्षाबंधन बचपन में 

मिले रुपयों को सहेज कर रखा।

वह वो कलाई थी , 

जिसमें सिर्फ हम चार की नहीं बल्कि 

बँधती थी ग्यारह राखियाँ 

पूरा भरा हाथ होता था ।

कितनी सारी बहनें इंतजार करती थी ,

और आज सबसे मुँह मोड़ कर

पता नहीं कहाँ खो गये?

ये दीपक इंतजार में थक कर सो जायेगा,

ये फूल भी मुरझा जायेंगे,

बस रोली अक्षत और राखी 

शेष रहेंगे ,

या सच कहूँ तो

उस माला चढ़ी हुई तस्वीर पर ही बाँध दूँगी ,

भले चले जाओ तुम दोनों

हम पीछा नहीं छोड़ेंगे,

भले भरी आँखों से

गिरते आँसुओं से धो लूँ अपना चेहरा

लेकिन बाँध कर ही मानूँगी

महसूस करूँगी तुम दोनों को

 उसी रूप में जैसी हमेशा करती रही थी ।

भले पास न हो,

 फिर भी राखी का नेग तो लेती थी मिलने पर,

अब भी आकर आत्मा से आशीष दे जाना, 

कहते है न आत्मा परमात्मा होती है ।

बस संतोष कर लूँगी कि अगले जन्म फिर बनना भाई,

और मैं फिर साक्षात बाधूँगी ये रक्षा सूत्र।


-- रेखा श्रीवास्तव

रविवार, 18 अगस्त 2024

ओ गांधारी अब तो जागो!


ओ गांधारी

अब तो जागो,

जानबूझ कर 

मत बाँधो आँखों पर पट्टी,

सच को न देखने  का 

साहस करना होगा।

कुछ करना होगा,  

सिर्फ गला फाड़कर चीखने से 

आँख बंद कर चिल्लाने से 

मानव नहीं बन जाते है ।

ओ गाँधारी !

अपनी आँखों की पट्टी 

खोलने का 

अब वक्त आ गया है।

 दुःशासन को नहीं

जन्म देना अर्जुन को।

अब अनुगमन का नहीं,

अग्रगमन के लिए तैयार हो 

अपने घर के लाड़लों को

 किसी शकुनि के हाथ में नहीं, 

अपने साथ ले आगे चलना है।

द्रौपदी की बेइज्जती नहीं,

इज़्ज़त करना सिखाना होगा।

जबान की तलवारें नहीं, 

मर्यादा सिखानी होगी।

अब गांधारी नहीं

बल्कि कुंती बनना होगा।

पांडव जैसे

अपने पुत्रों को

इस देश की मिट्टी की गरिमा से

सज्ज करने के लिए,

सिर्फ तुम्हारे और तुम्हारे जैसा हो सकता है। 

सत्ता के दीवाने या हवस का मालिकाना हक 

अहम से सराबोर 

बेटों की अब जरूरत नहीं है। 

तो तुम भी सीखो ,

अपने वंश के नाश की त्रासदी झेली है तुमने,

अब अपने लाडलों को 

खुली आँखों से पालना है, 

अपनी कोख को लज्जित होने से  बचाना होगा। 

तभी तो भविष्य में 

इस धरती पर, 

और किसी महाभारत  की कहानियाँ सुनने को न मिलेंगी।

सोमवार, 1 जुलाई 2024

क्या कहिए ?

 

हर अश्क ने लिखी एक अलग इबारत है, 
इन अश्कों की जुबानी भी क्या कहिए ?
 
कुछ में बसी है कसक अनदेखे जख्मों की, 
इस अहसास में छलके तो क्या कहिए ?

ज़ख्मों की कसक हो अपनी जरूरी तो नहीं,
दर्द किसी का,अश्क हों अपने क्या कहिए?

कुछ पन्ने अतीत के खुलते ही छलक गए ,
क्या कहाँ चुभा निकले आँसू क्या कहिए?

कहीं बैठ अकेले अपनों से दूरी की यादें,
छलक गयीं बरबस आँखें क्या कहिए?

कुछ बिछड़ गये कह न पाये दिल की अपने,
उन यादों में छलके अश्कों का क्या कहिए?

रेखा श्रीवास्तव

रविवार, 9 जून 2024

वक्त की पतंग

 वक्त की पतंग!


ये वक्त

पतंग सा

ऊँचे आकाश में,

चढ़ता ही जा रहा हैं।

डोर तो हाथ में है,

फिर भी

फिसलती ही जा रही है,

कोई मायने नहीं,

कि चर्खी कितनी भरी है?

जब पतंग पर काबू नहीं,

पता नहीं डोर कब छूट जाये?

पकड़ कभी मजबूत नहीं होती,

बस एक दिन तो छूट जाना है।

समय आना तो एक बहाना है।