हाँ मै हूँ बबूल !
जिसे न कोई रोपे जग मेंं,
खुद ब खुद उगता बढ़ता हूँ
नहीं धूप वर्षा की जरूरत
रहते जिसमें शूल ही शूल,
्हाँ मैं शूल हूँ बबूल !
नहीं चाहिए खाद औ पानी
फिर भी करके मैं मनमानी
जहाँ तहाँ उग ही आता हूँ
चाहे धरती हो प्रतिकूल
हाँँ मैं हूँ बबूल !
रक्षक भी बन सकता हूँ
खेतों पर मैं बन कर बाड़
सीमा पर पहले ही रोकूँ
दुश्मन को बनकर त्रिशूल
हाँँ मैं हूँ बबूल !
आयुर्वेद ने समझा मुझको
ऋषियों ने देकर सम्मान
गोंंद , छाल या फल हों
औषधियों में किया कबूल
हाँँ मैं हूँ बबूल !
No comments:
Post a Comment
Links to this post
Create a Link