सोमवार, 26 दिसंबर 2011

जिन्दगी बनी तस्वीर !

सिर्फ एक सांस का फासला होता है
जुड़ी रही तो जीवन
नहीं तो टूटते ही
जिन्दगी तस्वीर में सिमट जाती है
टूटते ही सांसों के क्रम के
सब पञ्च तत्वों में बिखर जाता है,
हम लिए उस पार्थिव को
कभी थे/थी के साथ
अपनों से जुड़े रहते हें
चढ़ जाती है माला
' दिया जल जाता है,
जिन्दगी का यूँ सफर ख़त्म
हमें तो सिर्फ गम ही दे जाता है
ये सिर्फ सांसों के रिश्ते हें
सांसों का नाता है,
फिर किस से कहें
कौन कब आता है और कब जाता है?

सोमवार, 5 दिसंबर 2011

जख्म कैसे और क्यों?

लोग कहते हें कि वक़्त के साथ जख्म भर जाते हैं,
सच ही कहा है लेकिन कुछ अहसास भी मर जाते हैं।

जख्म भर कर भी दिल में कुछ निशान छोड़ जाते हैं ,
निगाह जब भी पड़ती है वे फिर से कसक जाते हैं .

कहते हें न दुखती रग पर हाथ जब रख जाते हैं,
वे अपने ही सगे होते हें जो बेइज्जत कर जाते हैं।

गुनाह तो नहीं किया था, काम इंसानियत का किया था।
जोड़ा था नाता खुदा से आसरा मजलूमों को दिया था।

कोई तोड़ दे भरोसा इंसानियत के पाक उसूलों का
तो ज़माने में इल्जाम क्यों जख्मदारों को दिया जाता है।

शुक्रवार, 2 दिसंबर 2011

मेरी कलम !

अरसे बाद

आज कलम उठाई

स्याही की कुछ बूँदें

पहले टपक पड़ी।

उसके अंतर में झाँका

प्रश्न वाचक नज़रों से

क्या हुआ कहा?

बिफर ही तो पड़ी -

'कितना कुछ घट गया

अच्छा ही था
बहुत अच्छा हुआ

क्यों मैं न लिख सकी?

तवज्जो ही नहीं दी

इतनी दूर रखा अपने से

ख़ुशी मेरी छलकी

देखी नहीं

तिरस्कार , उपेक्षा से

वे आंसूं इस तरह निकले हें।'

मैं चुप थी

अन्याय तो हुआ है

लेकिन

कर्तव्यों, दायित्यों के बोझ से

पुत्री के विछोह ने

इतना आहट कर दिया

कि भाव उमड़े, शब्द बने

फिर

मेरी ही आँखों से

गिरकर सूख गए

किसी कागज़ पर उतार ही नहीं सके।

दूसरे के दर्द को

आसानी से लिखा जाता है,

अपने दर्द में हाथ, मन औ' मष्तिष्क

सब सुप्त से हो जाते हें।

क्षमा करना, क्षमा करना।

मंगलवार, 20 सितंबर 2011

एक वर्ष और!

आज तीन वर्ष पूर्ण हुए मेरी ब्लोगिंग में आये हुए जब ब्लॉग बनाया था तो इसके बारे में कुछ भी जानती थी एडिटिंग और तस्वीरें लगाना और दूसरों के ब्लॉग पर जाना बहुत अधिक जानकारी तो अभी भी नहीं है बस काम चला लेती हूँ फिर भी अपने ब्लॉग परिवार के लोगों के प्यार से अभिभूत हूँ , जहाँ बिना देखे बिना मिले भी एक स्नेह का रिश्ता बना हुआ है जहाँ सभी एक दूसरे के सुख से सुखी और दुःख से दुखी अनुभव करते हें सांत्वना देते हें और साहस भी
बेटी के विवाह के कामों में इतनी व्यस्त है कि मैं इस बात को भूल ही गयी थी कि आज ब्लॉग के तीन वर्ष पूरे हो रहे हें इसे याद दिलाया यशवंत माथुर ने 'नई पुरानी हलचल' में मेरे ब्लॉग से पहली रचना उठा कर फिर से यादें ताजा करके इस पोस्ट के लिए सारा श्रेय यशवंत माथुर को ही जाता है

साल दर साल
यूं ही दिन दिन बनकर
गुजरते रहे,
हम भी
अपने तेरे और सबके
ख़ुशी, गम और यादें
समेट कर शब्दों में
इन पृष्ठों पर उतारते रहे
जब पैरों पर खड़े हुए
चलना आता नहीं था,,
हाथ थाम कर
लिखने से लेकर सजाना तक
सबने प्रेम से सिखाया
किसी ने दिशा दी,
किसी ने शिक्षा दी,
किसी ने प्यार दिया
और किसी ने प्यार लिया,
रिश्ते बने और टूटे भी
सबके साक्षी ये पृष्ठ
आगे भी इसी तरह से
चलते रहें
कभी आलोचना , कभी प्रशस्ति ,
कभी आरोप तो कभी प्रत्यारोप लिए
हम साथ चलते रहे
आप सब को आभार साथ चलने का
मुझे पढ़ने और समझने का,
आभार बार बार और फिर बार बार

सोमवार, 19 सितंबर 2011

कहीं ये तो नहीं?

जीवन के आकाश में
घिरी ये घटायें
छंटती हें
बरसती हें,
इनका गहन अन्धकार
दिन को भी
रात बना देता है
निराशा का जनक बनकर
हताशा का मार्गदर्शक
बनकर खड़ा रहता है
मन का उजाला
कहाँ तक रहें रोशन करे,
हौसले के दियालों को?
कभी कभी तो
वो उजाला भी स्याही में लिपट जाता है
लोग कहते हें
सुबह जरूर आएगी
लेकिन कब?
कहीं इस सुबह का इन्तजार
मौत की घड़ी
तो बन जाएगा?

शनिवार, 10 सितंबर 2011

दान !

एक पंडाल में
प्रवचन चल रहा था -
jeevan अर्जन और विसर्जन
दोनों का ह़ी नाम है
यदि अर्जित किया है तो
उसे किसी न किसी रूप में
विसर्जित अवश्य करें.
ड्यूटी में लगा
एक पुलिसवाला -
साला ये कौन सी नई बात है,
मैं जब भी
कमाता हूँ,
गाली दिए बगैर
कोई टेंट ढीली नहीं करता
सो पहले गालियाँ देता हूँ
फिर लेता हूँ.
हो गया हिसाब बराबर
इस हाथ दिया और उस हाथ लिया.
बोलो गुरुदेव की जय !

बुधवार, 7 सितंबर 2011

रिश्तों की माप !

अभी तक
ये समझ नहीं आया
कैसे लोग
रिश्तों को लिबास की तरह
बदल लेते है ?


कुछ रिश्ते
जो खून में घुले होते हैं
माँ से जुड़े होते है
रगों में वे
खून को पानी में
बदल लेते हैं?


कहते हैं जिन्हें
वे दिल के रिश्ते हैं
समझ आते हैं
लेकिन फिर ऊब कर
उनसे भी
किसी और को
अजीज बना लेते हैं
और
उसी रिश्ते में
कैसे बदल लेते हैं?

ये रिश्ते हो चुके हैं
अब शतरंज के मोहरों की तरह
दूसरों की जगह पर
रखते हैं नजर
औ'
अपने खाने जरूरत पर
बदल लेते हैं?

एक की जगह लेने को
हर मोड पर
दो दो खड़े हैं
जरूरत पड़ी तो
चेहरे की रंगत को भी
बदल लेते हैं?

शनिवार, 20 अगस्त 2011

अन्ना की आंधी !









आज फिर आज़ादी जैसा जूनून भरा है मन में ,
ऐसा ही जोश छलक छलक रहा है जन जन में।

नहीं खबर है उनको इसकी कि दिन है या रात ,
पीछे तुम्हारे चलना है बस यही मन में एक बात।

गाँधी का प्रतिरूप मान कर साथ है आपके जनमानस,
उनके जैसे कदम बढे तो साथ हो चला ये जनमानस।

बौखलाहट में उनको अब नहीं कुछ भी सूझ रहा,
उबल बड़ा है राष्ट्र एकदम जो मनमानी से जूझ रहा।

ज्वालायें अब थाम चुके हैं प्रतिरोध की हाथों में ,
संघर्ष की माटी का तिलक लगा अपने माथों में।

यह जो जंग छिड़ी है तो अब परिणाम तक जानी है।
दिवस , माह औ' वर्षों तक चलाने की ही ठानी है।

बालक , युवा औ' वृद्धों ने अब मशाल थामी है,
जो हैं अशक्त तन से उनकी भी इसमें हामी है।

वे इतिहास दुहरा नहीं फिर से बना रहे नया हैं ,
पर मिट्टी में मिल जाने का इतिहास वही रहा है।

बचा नहीं पायेगा उनका धन भंडार अकूत,
मान प्रतिष्ठा डूब गयी तो क्या करेगा भूत।

वर्तमान में मांग यही है बस कुचले भ्रष्टाचार ,
पालकों को उसके सिखा ही देंगे ये है सदाचार .

बुधवार, 17 अगस्त 2011

दोहरा सत्य !

वो दर्द का एक सैलाब दिल में लिए,
यूं ही सबकी ख़ुशी में मुस्कराती रही,
आँखों में बसी उदासी औ' नमी को ,
झुका कर नजरें दुनियाँ से छुपाती रही।

रोका उसे औ' झांक कर आँखों में उसकी,
एक दिन मैंने पूछ ही लिया उससे कि ,
क्यों तुम बाहर से खुश दिखने के लिये,
इस तरह अपनाकलेजा जलाती हो तुम?

छूते ही मर्म बह निकला दर्द शिद्दत से,
उमड़ते हुए गुबार उसमें सब बहने लगे,
हंसती हूँ तो लोग शामिल भी कर लेते हैं
रोई हूँ जब तक कतरा कर निकल गए।

ab to समझ ली है रीत दुनियाँ की,
गर उनकी ख़ुशी में हंसों तो ठीक है,
वो तुम्हारे ग़मों को बाँट कर कभी
तुम्हारे साथ रोने कोई नहीं आता।

गुरुवार, 11 अगस्त 2011

मेरी कलम से !

मेरी कलम

मेरी सबसे बड़ी हमराज है।

कितनी प्यारी सी सहेली है,

बताऊं कैसे ?

इससे खास

शायद कोई नहीं,

ये जानती है

मेरे ग़मों और

मेरे सदमों को,

किन शब्दों में

उजागर करना है।

आंसुओं की स्याही

कहाँ गहरी औ'

कहाँ हल्की रखनी है।

टपकते हुए आंसुओं को

जज्ब  कर

कब कितनी शिद्दत से

उगलना है जहर

एक ऐसा जहर

जो खुद को ही

मार दे ,

दूसरे से मिले दर्द को

सह सके

औ' मन  से उन्हें

बुरा न कहे

मेरे जख्मों को

खुद ही

कागज पर उतार कर
मरहम बना देती है
और फिर
हल्का दिल लिए ,
मैं उसको हाथ में लिए
तकिये पर सर रखे
शांति से सो जाती हूँ.
मेरे सारे गम
उसने कागजों पर
उतार जो दिए थे
.

बुधवार, 10 अगस्त 2011

कलयुग के आदर्श !

मैं
आदर्शों और सिद्धांतों की
ढाल लिए
जीने का सपना लेकर
खुद को बहुत
सुरक्षित समझ
जीवन समर में उतरी।
नहीं जानती थी तब
कि
यहाँ षडयन्त्रो,
झूठ, फरेब , चालाकी के
अस्त्र शास्त्रों से
ये ढाल बचा नहीं पायेगी
जिनके बीच रहना है।
वे बहुत शातिर हैं,
खड़े खड़े तुम्हें
सच होने पर भी
गीता की कसम लेकर
झूठा साबित कर देंगे।
और फिर
इल्जामों की सलाखों में
कैद होकर
अपने निर्दोष होने की
गवाह अपनी आत्मा से कहोगी
तुम्हें पता है न,
मैंने कुछ कभी गलत
किया ही नहीं
फिर ऐसा क्यों?
आत्मा सर झुका कर
कहेगी
ये कलयुग है
त्रेता में सीता भी
ऐसे ही
फिर तुम तो कलयुग में
तुम सी
बहुत झूठ साबित की गयी
मैं हूँ न
तुम्हारी आत्मा
तुम्हारे निर्दोष और निष्पाप
होने की गवाह
और क्या चाहिए?
याद रखो
कलयुग में
सच हमेशा रोता है
औ'
झूठ फरेब सुख से सोता है।

गुरुवार, 4 अगस्त 2011

आह्वान !

सृष्टि का आधार हो तुम
इस जगत की पालनहार हो तुम
तुम्हें नमन करूँ
फिर भी ये तो कहना ही है ----
तुम शांत धीर गंभीर
सरिता सी शीतल
आँचल में छिपाए
दर्द दुनियाँ का
रोज मरती हो सौ सौ बार
इस तरह शांत रहो
कुछ तो कहो
हो तुम सागर सी विशाल
तट फैला कर मीलों तक
संहारिणी भी बनना सीखो
काँप जाए हाथ उनके
थर्रा उठे आत्मा उनकी
विवश बेचारी मत बनो
कुछ तो कहो
सब कुछ कलुषित
तेरी लहरों में बिखरा कर
वे पवित्र हो गए
आँचल छू कर तेरा
कलुषित तुझे कर गए
फ़ेंक दो बाहर उन्हें
करो बगावत ऐसे लोगों से
अब शांत मत बहो
कुछ तो कहो
मूक नाद तेरा
मूक गिरा तेरी
मौन स्वीकृति मान कर
कर जाते हैं तिरस्कार तेरा
पापनाशिनी बनकर
मत समेटो त्याज्य उनका
तुम पवित्र हो गंगा सी
बोलो कुछ तो बोलो
अब इतना मत सहो
कुछ तो कहो

सोमवार, 25 जुलाई 2011

फासले !


फासले नहीं बनते
मीलों और कोसों से
तार मन के
जहाँ जुड़ते हैं
सारे फासले ख़त्म हो जाते हैं।
ये तार ही तो है -
रोते हुए के आँसू,
पोंछते हैं बार बार ,
सिर पर हाथ फिरा कर
दिलासा दे जाते हैं।
दूर क्यों जाएँ?
देखिये न
जहाँ मिलती हैं
दीवार से दीवारें
औ द्वार द्वार जुड़े हैं
फासले मीलों तक पसरे हैं,
मुँह घुमा कर गुजर जाते हैं,
सिसकियों पर मुस्कराते हैं,
ये फासले
होते हैं कितने लम्बे
इंसान के दिलों को तक तोड़ जाते हैं।

शनिवार, 23 जुलाई 2011

मेरा वजूद 1

मैं सोचती हूँ
अतीत से वर्तमान तक
अपने वजूद को
जो मैंने कभी देखा ही नहीं,
जन्म से अबतक
एक न एक रिश्ते के लिबास में
लिपटी अनुशरण करती रही.
मैंने कब सोचा?
क्या चाहा?
क्या पाया?
किसी ने नहीं देखा
मैं भी पागल सी
उनकी हंसी में हंसती रही
उनके ग़मों में रोती रही.
आज मेरी आत्मा
चीत्कार कर उठीखो कर अपनी अहमियत
अपने वजूद की
मांग रही है
मुझसे हिसाब जिन्दगी का
कहाँ से लाऊं?
मेरा हिस्से में तो
कुछ भी नहीं आया.
जीवन भर
बाप की बेटी,
भाई की बहन,
पति की पत्नी
बेटे की माँ,
यही तो मेरा परिचय रहा
मेरा वजूद क्या था?
इनसे लिपटे दायित्वों कि पूर्ति
इनकी खुशी पर न्योछावर होना
वजूद की पहचान कौन देगा?
अरे ये भी नहीं सुना,
मेरे पीछे मेरी
बेटी, बहन, पत्नी या माँ भी है.
मेरा वजूद भी
समुद्र में मिलने वाली
सरिता सा
हो चुका था .
जीवन समुद्र था
औ मैं एक सरिता
फिर सच वही हुआ
पानी में मिलकर पानी
अंजाम ये कि पानी
मैं उस सागर में खो गयी
न वजूद था और न मैं थी.

सोमवार, 4 जुलाई 2011

कुछ ऐसे ही.

खाली हाथ खाली मन खाली खाली सा चमन ,
न अब इसमें खिलती हैं कलियाँ बसंत में ,
नजर कुछ ऐसी लगी दुनियाँ की खुशियों को मेरी,
बस जो भी आता है खालीपन ही दे जाता है अंत में।
* * * * * *
दुनियाँ कहती है बस एक बार तो मुस्कराओ
बाग़ के फूलों सी सुबह सुबह तुम भी खिल जाओ ,
मुस्कराने की कोशिश इस कदार नाकाम हुई ,
कि खुश तो बहुत हुई तो भी आंसूं ही छलक आये।

* * * * * *
कुछ ऐसे ही रच जाता है बैठे बैठे कभी कभी,
जिसमें पीड़ा किसी की और आँसू किसी के होते हैं,
कब उनको अपने में ढाल कर हमने जी लिया,
गम उनका और अपने दिल पर लेकर हम रोते हैं।

* * * * * *
वादा किया था एक दिन आयेंगे lautkar ,
चौखट पर टिके हुए मुझे वर्षों गुजर gaye ,
पगडण्डी से उड़ाती हुई धूल देखकर लगता है
शायद उनको वादे का इन्तजार पता नहीं ।

शुक्रवार, 1 जुलाई 2011

जीत का जश्न !

एक गरीब और विकलांग बच्चे की जीत का जश्न कुछ इस तरह मनाया हमने की आँखें तो भरी हीकुछ कलम भी कह उठी



राहों में बिछे
काँटों की चुभन
'
पैरों से रिसते लहू
से निकली
घावों की पीड़ा,
हौसलों की राह में
रोड़े बन जाती है?
नहीं
हौसले जमीन पर
कब चलने देते हैं,
यही तो
मन के पर बनकर
आकाश में उड़ान
भरते हुए
कहीं और ले जाते हैं
जहाँ पहुँच कर
छलक पड़ती हैं आँखें
अभावों के पत्थर
विरोध के स्वर
कटाक्षों के तीरों से
आहट अंतर्मन
मंजिल पर पहुँच कर
आखिर रो ही देता है
लेकिन ये आँसू
औरों को
रुला जाते हैं
फिर ढेरों
आशीष और
सर पर रखे हाथ
जीत का जश्न मनाते हैं

रविवार, 26 जून 2011

ख़ामोशी से ज्वालामुखी तक !

खामोश निगाहें,
खामोश जुबां,
धुंधली रोशनी या बेजुबां
नहीं होती हैं
सब्र कि हद तक
तो पीती हैं -
तिरस्कार, जलालत और बेरुखी का जहर,
जाने कौन से लम्हे में
इस सब्र के बाँध में
दरार जाये
फिर वह ज्वालामुखी
अगर फट ही गयी तो,
कोई रक्षा कवच
तुम्हें बचा नहीं पायेगा
उसकी राख और धूल भी
इतनी घातक होगी कि
सांस लेना तो दूर
देखने देगी '
जीने देगी
और तुम जुबान से
आग उगलने वालो
उस खामोश ज्वालामुखी में
खाक हो जाओगे,
क्योंकि ये सच है
किसी मासूम की आह से
सोने की लंका भी
खाक हो जाती है
तब कोई बाहुबली रावण
उसको बचा नहीं पता
इस लिए सावधान
किसी के अंतर की ज्वालामुखी को
फटने के लिए इंतजाम करो
उसके सब्र को
टूटने का इन्तजार करो

गुरुवार, 23 जून 2011

माटी और खम्भे !


घर कभी
माटी के हुआ करते
थे,
माटी के ऊपर माटी की परतें
सब मिलकर एक हो जाती थीं।

उनमें बसने वाले लोग,
उनमें बसता था प्यार,
वे एक ही रहते थे
क्योंकि माटी का एक ही रूप होता है।
अगर तोडा तो पूरी दीवार ढह जाती थी ,

क्योंकि
उसमें और कुछ होता ही नहीं था।
तब मंजिलें नहीं होती थी,
तभी तो सब
एक ही जमीन पर
एक ही सतह पर
एक साथ जिया करते थे।
फिर मंजिले बनने लगी

जब तक दीवारों पर छत रही
शुक्र था
क्योंकि वे दीवारें तो एक थीं।
ब खम्भों पर
खड़ी बहुमंजिली इमारतें
उनका कोई अस्तित्व नहीं

कोई छत किसी की नहीं
सिर्फ फर्श अपना है।
ऊँचाइयों पर चढ़ने वाले
किसी के भी नहीं रहे
सिर्फ 'मैं' और 'मेरा'
बचा रह गया है।
मकान खरीद लेते हैं,
कल बेच देते हैं
लेकिन घर कभी नहीं बन पाता,
सिर्फ सोने की जगह है। ( चित्र गूगल के साभार )
जहाँ बच्चे , माँ -बाप
पति-पत्नी एक दूसरे के सानिंध्य को
तरसते रहते हैं।
अगर यही हमारी प्रगति है
तो हम इंसान से
मशीन बन चुके हैं.
और मशीनों में
संवेदनाएं नहीं हुआ करती।
सोचा वापस झाँक लूं
उन माटी के घरों में
जहाँ पुरखे रहा करते थे।
पर यह क्या?
पुरखों के साथ ही
माटी का चलन ख़त्म हुआ
क्योंकि अब
यहाँ भी
खम्भों के बीच जुड़ी दीवारों का
चलन आ गया है।

मंगलवार, 7 जून 2011

गैर जिम्मेदार !

मंत्रीजी से मिलने
चार बंगले वाले पहुंचे
लगे सवाल करने
मेन रोड कब बनेगी?
गाड़ी फँस जाती है गड्ढों में
धूल के गुबारों से
निकलना मुश्किल है,
गलियां जो जुड़ रही है उनसे
सब पक्की हो चुकी है
ये क्या तमाशा है?
मंत्रीजी ने
पान मसाले को निगलते हुए
अंगुली उठाकर
उनसे कहा -
आप बड़े बंगले वाले
मेन रोड पर - बंगले हैं,
पूरी सड़क पड़ी है
आधे में उजड़ा पार्क
और
सामुदायिक केंद्र बना है
वोट क्या खाक मिलेंगे?
गलियों में लोग
एक घर में
१०-१० रहते हैं,
उन्हें सुविधा देंगे
नाम लेंगे,
बदले में मेरी सीट पक्की
बंगले वाले तो वोट भी नहीं देते
गालियाँ देते हैं
सो मेन रोड नहीं
उसके किनारे लगे
पत्थर देखिये
जिनपर लिखा मेरा नाम
तुम्हें गैर जिम्मेदार ठहरा रहा है

सोमवार, 6 जून 2011

लोकतंत्र की हत्या!

हम कहते हैं
देश में लोकतंत्र की
हत्या हो चुकी है,
क्यों हो?
सत्ता का मद
बहुत गहरा होता है
उसके लिए कुछ भी करेंगे,
जहाँ चुनावी सरगर्मी में
लोक के भूखे पेट की आग पर
राजनीति का तवा चढ़ा कर
वोटों की रोटियां सेकी जाती हैं
पेट तो सिर्फ भूख जानता है,
वे रोटियां कैसे सिकीं
इससे नहीं मतलब
मतलब तो इससे है कि
वे रोटियां मिली
और पेट की अग्नि बुझी,
फिर जिसने जो कहा
कर दिया
फिर क्या लोकतंत्र और क्या राजतन्त्र
उन्हें रोटियां चाहिए
रोटियां देने वाले शैतान भी
उन्हें देवता नजर आते हैं,
कल नहीं आज की
उदराग्नि बुझाने वाले
भगवान समझे जाते हैं,
भले भी वे कुत्ते समझ कर
टुकड़े डाल दें
और उनके कल पर काबिज हो जाएँ
देखा नहीं
भूख से बिलबिलाते जन को
पैसे दिखाई देते हैं
चाहे जुलूस में ले जाएँ
या फिर
जिंदाबाद ही तो कहना है
फिर पेट भर खाने की
तृप्ति उन्हें बिकाऊ बना देती है
अब लोक कहाँ और तंत्र कहाँ?

गुरुवार, 2 जून 2011

आभार करो !

विनम्र हो इतना
कि जिसमें शेष रहे
आत्मसम्मान तुम्हारा
दीनता का भाव धरो,
झुको इतना कि
गरिमा तुम्हारी बनी रहे,
गर वे करें कोशिश
बिछाने की
टूटने की दशा में
मान लो वे इस काबिल नहीं
भाषा उन्हें
समझ आती है अपशब्दों की
अपशब्द सीखो नहीं
बस उस रास्ते को छोड़ दो
मानव की कई श्रेणियां होती हैं
तुम जहाँ हो
वहीं से चल पड़ो
वे रास्ते कहीं जाते नहीं
पतन के आगे
कोई रास्ता होता नहीं,
गर्त में गिरो तो
कोई थाह होती नहीं
मन क्रम वचन से
धीर धर कर
तुम आचरण करो
आगे देखो पीछे
अपने रास्ते तुम खुद चुनो
मंजिल तुम्हें मिल जाएगी,
इस पथ का राही कभी
भटक कर विचलित होता नहीं
कुछ मिले मिले
हर लेकर द्वार पर
संतोष खड़ा मिलेगा
मूँद कर आँखें स्वीकार करो
ईश को नमन कर आभार करो

रविवार, 29 मई 2011

दर्द किसी सूने घर का !

तेरी आवाज सुनी तो सुकून आया दिल को,
वर्ना तुझे देखे हुए तो जमाना गुजर गया।

कभी गूंजती थी किलकारियां इस आँगन में,
वर्षों गुजर चुके है इसमें अब सन्नाटा पसर गया।

कभी गुलज़ार थी ये इमारत भी जिन्दगी से,
अब गुजरता ही नहीं है मानो वक़्त ठहर गया।

बसाया था ये घर दो से फिर हम चार हुए,
फिर दो में सिमट गए तो दिल सिहर गया।

आशियाँ तो बनाया था तेरे ही लिए मैंने,
जिन्दगी पले इसमें ये ख़्वाब ही बिखर गया।

शुक्रवार, 27 मई 2011

एक टुकड़े साए की तलाश


कड़ी धूप और तपिश में

ऊपर देखते हुए
इसी तरह चलते रहना है
एक टुकड़े साए की तलाश में

सूखते हलक '
पपड़ाये होंठों को
तर करने की चाहत सिमटी है,
इस खुले हुए नीले आकाश में

भटक रही हैं निगाहें
दूर दूर तक
मिलेगा कोई दरिया
प्यास बुझाने के लिए
बढ़ रहे हैं कदम इसी विश्वास में

रेगिस्तान की तपती रेत
सुखा देती है
आशा की बूंदों को
जिन्दगी ही तब्दील हो रही है
सांस चलती हुई इस जिन्दा लाश में

बुधवार, 25 मई 2011

ख्वाहिश नहीं करते!

गर तुम्हें गुरेज है मुहब्बत में पहल करने से,
तो हम भी दुनियाँ के सामने नुमाइश नहीं करते

ये वो पाक जज्बा है पलता है रूह में भीतर ही,
मिल सका तो मुकद्दर की आजमाइश नहीं करते

छिपाकर भी मुहब्बत के अहसास नहीं मरा करते,
तुम चाहो तो फिर तुम्हारी ख्वाहिश नहीं करते

रूह मेरी है, अहसास भी मेरे है नियामत मेरे लिए ,
बहुत दिया है खुदा ने अब कोई फरमाइश नहीं करते

रविवार, 22 मई 2011

भटकन !

मनुष्य
जीवन सत्य से
आँखें मूँद कर
जब चलने लगता है

किस गुमान में
बुरी तरह से
विकृत भावों से
जब घिरने लगता है

मूल्य खो जाते हैं,
आस्थाएं दम तोड़ देती हैं,
विश्वास भी टुकड़े टुकड़े
होकर गिरने लगता है

मानवता रोती है,
गिड़गिड़ाते हैं सुजन
दर्प और दंभ के साए में
खुद ही जलने लगता है

शेष कुछ नहीं,
विवेक भी मूक
खुली आँखों से
अंधत्व की ओर जाते
रास्तों को देखने लगता है

बुधवार, 18 मई 2011

चार लाइने !

इस को लिखने बैठी तो फिर इससे ज्यादा लिख ही नहीं पाई क्योंकि ये एक उत्तर था किसी के प्रश्न का और जितना बड़ा प्रश्न उनता ही तो उत्तर होता है।

अपने को मैंने बहुत पहले ही पढ़ लिया है

तभी तो जिन्दगी को इस तरह गढ़ लिया है,

अब क्या सुनाएँ दोस्त दास्ताने जिन्दगी,

वक़्त के पहले ही खुद सूली पर चढ़ लिया है


* * * * * *

ये कामना ही मेरी भगवान से,

जियें जब तक जियें सम्मान से,

दूर ही रखे वो मुझे अभिमान से,

मूल्य प्रिय हों सभी को जान से

सोमवार, 16 मई 2011

मौत का फैसला !

करना अपनी मौत का फैसला
क्या इतना ही आसान होता है?

पहले सौ बार दिल सोचता है,
अकेले ही जार जार रोता है

अपने ग़मों की हदें गुजर जाने पर
इंसान कभी कभी आपा खोता है

ख्याल अपने बच्चों का उसके जेहन में
एक नहीं बार बार सामने से गुजरता है

जीवन के सुहाने और दुखद पलों का
गुजरा सिलसिला भी नजर में तैरता है

डगमगाते हैं कदम उसके फिर
हालात का भी एक वास्ता होता है

कुछ सुखद पलों का साया भी
उससे साहस को हिला भी देता है

फिर दिल पर लगी चोट का अहसास
उसके फैसले पर मुहर लगा देता है

इन पलों को गर टाल दे कोई तो
जिन्दगी का ही पलड़ा भरी होता है

गुरुवार, 12 मई 2011

फूल भी झरते हैं!

ये सच है
बोल बड़े अनमोल हैं भाई,
फिर ये भी सच है
अनमोल वही होते हैं
जिन्हें हम
बोलने से पहले तौल लें भाई.
वही शब्द और जीव वही
कहीं शीतल फाहे से
तपती आत्मा को
शांत कर देते हैं.
औ'
कहीं वही शब्द
अंतर तक बेध जाते हैं.
बुद्धि वही, सोच वही, इंसान वही
फिर क्यों?
कहीं हम विष वमन करते हैं
और कहीं
मुख से हमारे फूल झरते हैं.
दोषी कौन?
हम जो जला या सहला रहे हैं,
या फिर वो
जो जल रहे हैं और
अन्दर ही अन्दर राख हो रहे हैं.
अरे इंसान हैं हम
जीते तो सब अपने हिस्से के
दुःख और सुख हैं.
हम फिर क्यों
दूसरों के सीने पर
शब्दों के खंजर चला कर
लहूलुहान करते हैं,
जबकि उन्हीं शब्दों से
फूल भी झरते हैं.

बुधवार, 11 मई 2011

नजरिया अपना अपना !

जब अपनों ने दिए
गम पे गम
आत्मा टूट कर चकनाचूर हो गयी,
हताश हो
कैद कर लिया
खुद को एक कमरे में
हवाएं दस्तक दे रहीं थी,
दरवाजे बंद कर लिए,
खिड़कियाँ बंद करके
परदे खींच लिए
टकरा टकरा कर वह लौट गयीं
भयावह नीरवता
जब काटने लगी,
फिर दस्तक के लिए
दरवाजे खोलते हैं,
कोई हवा आती क्यों नहीं?
दस्तकें अब सुनाई देती नहीं,
अब खिड़की दरवाजे सभी खुले हैं
लेकिन
हवाओं ने रुख मोड लिया है
तुमने अच्छा किया
या हवाओं ने
ये तो वक्त ही बताएगा,
जब जिन्दगी में
कुछ नजर नहीं आएगा
गर हिम्मत से काम लेते
जिन्दगी को इस तरह से
कमरे में कैद करते
खुशियाँ खोजी होतीं
कलियों में, नजारों में,
ये दर्द खुद खुद उसमें खो जाता
और फिर
तुम्हें उसमें जिन्दगी नजर आने लगती
वक्त हर जख्म का मरहम है
कोई भले ही सोचे
ये वक्त बड़ा बेरहम है