जीवन के आकाश में
घिरी ये घटायें
न छंटती हें
न बरसती हें,
इनका गहन अन्धकार
दिन को भी
रात बना देता है।
निराशा का जनक बनकर
हताशा का मार्गदर्शक
बनकर खड़ा रहता है।
मन का उजाला
कहाँ तक रहें रोशन करे,
हौसले के दियालों को?
कभी कभी तो
वो उजाला भी स्याही में लिपट जाता है।
लोग कहते हें
सुबह जरूर आएगी
लेकिन कब?
कहीं इस सुबह का इन्तजार
मौत की घड़ी
तो न बन जाएगा?
घिरी ये घटायें
न छंटती हें
न बरसती हें,
इनका गहन अन्धकार
दिन को भी
रात बना देता है।
निराशा का जनक बनकर
हताशा का मार्गदर्शक
बनकर खड़ा रहता है।
मन का उजाला
कहाँ तक रहें रोशन करे,
हौसले के दियालों को?
कभी कभी तो
वो उजाला भी स्याही में लिपट जाता है।
लोग कहते हें
सुबह जरूर आएगी
लेकिन कब?
कहीं इस सुबह का इन्तजार
मौत की घड़ी
तो न बन जाएगा?
घटाटोप अँधेरा . निराशा उमड़ी जा रही है . तमसो मा ज्योतिर्गमय .
जवाब देंहटाएंमौत भी हो तो सुबह ही होगी ....मुक्ति की !
जवाब देंहटाएंगहन चिंतन....
जवाब देंहटाएंगंभीर अभिव्यक्ति!
जवाब देंहटाएंयह निराशा के बादल क्यों ?.. और वैसे भी मृत्यु के बाद फिर नयी शुरुआत ..
जवाब देंहटाएंइतनी निराशा ठीक नही।
जवाब देंहटाएंजब मैं फुर्सत में होता हूँ , पढ़ता हूँ और तहेदिल से इन भावनाओं का शुक्रगुज़ार होता हूँ ....
जवाब देंहटाएंसुबह जरूर आती है .. बस उस वक्त आँखें खुली होनी चाहियें ... गहन चिंतन ...
जवाब देंहटाएंकल 02/11/2011 को आपकी कोई एक पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद!
बेहतरीन कविता।
जवाब देंहटाएंसादर