सोमवार, 19 सितंबर 2011

कहीं ये तो नहीं?

जीवन के आकाश में
घिरी ये घटायें
छंटती हें
बरसती हें,
इनका गहन अन्धकार
दिन को भी
रात बना देता है
निराशा का जनक बनकर
हताशा का मार्गदर्शक
बनकर खड़ा रहता है
मन का उजाला
कहाँ तक रहें रोशन करे,
हौसले के दियालों को?
कभी कभी तो
वो उजाला भी स्याही में लिपट जाता है
लोग कहते हें
सुबह जरूर आएगी
लेकिन कब?
कहीं इस सुबह का इन्तजार
मौत की घड़ी
तो बन जाएगा?

10 टिप्‍पणियां:

  1. घटाटोप अँधेरा . निराशा उमड़ी जा रही है . तमसो मा ज्योतिर्गमय .

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  2. मौत भी हो तो सुबह ही होगी ....मुक्ति की !

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  3. यह निराशा के बादल क्यों ?.. और वैसे भी मृत्यु के बाद फिर नयी शुरुआत ..

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  4. जब मैं फुर्सत में होता हूँ , पढ़ता हूँ और तहेदिल से इन भावनाओं का शुक्रगुज़ार होता हूँ ....

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  5. सुबह जरूर आती है .. बस उस वक्त आँखें खुली होनी चाहियें ... गहन चिंतन ...

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  6. कल 02/11/2011 को आपकी कोई एक पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है।

    धन्यवाद!

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