लोग कहते हें कि वक़्त के साथ जख्म भर जाते हैं,
सच ही कहा है लेकिन कुछ अहसास भी मर जाते हैं।
जख्म भर कर भी दिल में कुछ निशान छोड़ जाते हैं ,
निगाह जब भी पड़ती है वे फिर से कसक जाते हैं .
कहते हें न दुखती रग पर हाथ जब रख जाते हैं,
वे अपने ही सगे होते हें जो बेइज्जत कर जाते हैं।
गुनाह तो नहीं किया था, काम इंसानियत का किया था।
जोड़ा था नाता खुदा से आसरा मजलूमों को दिया था।
कोई तोड़ दे भरोसा इंसानियत के पाक उसूलों का
तो ज़माने में इल्जाम क्यों जख्मदारों को दिया जाता है।
ज़ख्म भरते नहीं ... वहम का मलहम लगा लेते हैं हम
जवाब देंहटाएंआपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टी की चर्चा कल मंगलवार के चर्चा मंच पर भी की गई है!
जवाब देंहटाएंयदि किसी रचनाधर्मी की पोस्ट या उसके लिंक की चर्चा कहीं पर की जा रही होती है, तो उस पत्रिका के व्यवस्थापक का यह कर्तव्य होता है कि वो उसको इस बारे में सूचित कर दे। आपको यह सूचना केवल इसी उद्देश्य से दी जा रही है! अधिक से अधिक पाठक आपके ब्लॉग पर पहुँचेंगे तो हमारा भी प्रयास सफल होगा!
बहुत बहुत धन्यवाद शास्त्री जी.
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर मन के भाव ...
जवाब देंहटाएंप्रभावित करती रचना ...
यही इस दुनिया की रीत है अपने गिरेबाँ मे कोई नही झांकता दूसरे के ज़ख्म कुरेदने मे ज्यादा सुकून पाते है लोग्।
जवाब देंहटाएंwaah bahut khub
जवाब देंहटाएंबहुत खूब सटीक एवं सार्थक प्रस्तुति ...समय मिले कभी तो आयेगा मेरी पोस्ट पर आपका स्वागत है
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