शुक्रवार, 2 दिसंबर 2011

मेरी कलम !

अरसे बाद

आज कलम उठाई

स्याही की कुछ बूँदें

पहले टपक पड़ी।

उसके अंतर में झाँका

प्रश्न वाचक नज़रों से

क्या हुआ कहा?

बिफर ही तो पड़ी -

'कितना कुछ घट गया

अच्छा ही था
बहुत अच्छा हुआ

क्यों मैं न लिख सकी?

तवज्जो ही नहीं दी

इतनी दूर रखा अपने से

ख़ुशी मेरी छलकी

देखी नहीं

तिरस्कार , उपेक्षा से

वे आंसूं इस तरह निकले हें।'

मैं चुप थी

अन्याय तो हुआ है

लेकिन

कर्तव्यों, दायित्यों के बोझ से

पुत्री के विछोह ने

इतना आहट कर दिया

कि भाव उमड़े, शब्द बने

फिर

मेरी ही आँखों से

गिरकर सूख गए

किसी कागज़ पर उतार ही नहीं सके।

दूसरे के दर्द को

आसानी से लिखा जाता है,

अपने दर्द में हाथ, मन औ' मष्तिष्क

सब सुप्त से हो जाते हें।

क्षमा करना, क्षमा करना।

11 टिप्‍पणियां:

  1. दायित्वों का निर्वाह करने में कलम का साथ थोड़ी देर के लिए छूट जाता है ...कोई बात नहीं..फिर से नई उर्जा के साथ जुडेगा.
    स्वागत है.

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  2. इतने दिनों बाद.......... क्या खूब लिखा है।

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  3. पर .... एक सच कहूँ , जिस तरह बेटी के लिए तत्पर रही , उसी तरह तुम्हें सोचा .... जितना दुःख तुम्हें है, मुझे भी है ... चलो दोस्त रुके सफ़र को आगे बढ़ाएं..
    सही कहा न रेखा जी ?.... मेरी बेटी को मेरा आशीर्वाद ....

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  4. कलम उठाये ही रहें दीदी, बेटियों की तो नियति जाना ही है, फिलहाल. अब कलम उठाई है तो रुकने न दें.

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  5. आपके दर्द को अच्छे से समझ रही हूँ ।

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  6. दूसरे के दर्द को
    आसानी से लिखा जाता है,
    अपने दर्द में हाथ, मन औ' मष्तिष्क
    सब सुप्त से हो जाते हें।
    यकीनन ऐसा ही होता है ... आभार ।

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  7. वाह...बेजोड़ भावाभिव्यक्ति...बधाई स्वीकारें

    नीरज

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  8. हाँ सभलना तो है ही, वैसे ही कौन से बेटियाँ मेरे पास रह रहीं है लेकिन अपने घर में रह कर दूर है वो अहसास और उनके विदा करने के बाद के अहसास में बहुत फर्क है.

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