बुधवार, 11 मई 2011

नजरिया अपना अपना !

जब अपनों ने दिए
गम पे गम
आत्मा टूट कर चकनाचूर हो गयी,
हताश हो
कैद कर लिया
खुद को एक कमरे में
हवाएं दस्तक दे रहीं थी,
दरवाजे बंद कर लिए,
खिड़कियाँ बंद करके
परदे खींच लिए
टकरा टकरा कर वह लौट गयीं
भयावह नीरवता
जब काटने लगी,
फिर दस्तक के लिए
दरवाजे खोलते हैं,
कोई हवा आती क्यों नहीं?
दस्तकें अब सुनाई देती नहीं,
अब खिड़की दरवाजे सभी खुले हैं
लेकिन
हवाओं ने रुख मोड लिया है
तुमने अच्छा किया
या हवाओं ने
ये तो वक्त ही बताएगा,
जब जिन्दगी में
कुछ नजर नहीं आएगा
गर हिम्मत से काम लेते
जिन्दगी को इस तरह से
कमरे में कैद करते
खुशियाँ खोजी होतीं
कलियों में, नजारों में,
ये दर्द खुद खुद उसमें खो जाता
और फिर
तुम्हें उसमें जिन्दगी नजर आने लगती
वक्त हर जख्म का मरहम है
कोई भले ही सोचे
ये वक्त बड़ा बेरहम है

5 टिप्‍पणियां:

  1. कितना सच कहा आपने।


    आपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
    प्रस्तुति भी कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
    कल (12-5-2011) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
    देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
    अवगत कराइयेगा और हमारा हौसला बढाइयेगा।

    http://charchamanch.blogspot.com/

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  2. वक्त हर जख्म का मरहम है
    कोई भले ही सोचे
    ये वक्त बड़ा बेरहम है।

    sach me ye waqt aisa hi hai!

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  3. तुमने अच्छा किया
    या हवाओं ने
    ये तो वक्त ही बताएगा,
    जब जिन्दगी में
    कुछ नजर नहीं आएगा।... bahut hi arthpurn baat hai

    जवाब देंहटाएं
  4. वक्त हर जख्म का मरहम है
    कोई भले ही सोचे
    ये वक्त बड़ा बेरहम है।

    ...बहुत सच कहा है..बहुत भावमयी सुन्दर अभिव्यक्ति..

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