बुधवार, 10 अगस्त 2011

कलयुग के आदर्श !

मैं
आदर्शों और सिद्धांतों की
ढाल लिए
जीने का सपना लेकर
खुद को बहुत
सुरक्षित समझ
जीवन समर में उतरी।
नहीं जानती थी तब
कि
यहाँ षडयन्त्रो,
झूठ, फरेब , चालाकी के
अस्त्र शास्त्रों से
ये ढाल बचा नहीं पायेगी
जिनके बीच रहना है।
वे बहुत शातिर हैं,
खड़े खड़े तुम्हें
सच होने पर भी
गीता की कसम लेकर
झूठा साबित कर देंगे।
और फिर
इल्जामों की सलाखों में
कैद होकर
अपने निर्दोष होने की
गवाह अपनी आत्मा से कहोगी
तुम्हें पता है न,
मैंने कुछ कभी गलत
किया ही नहीं
फिर ऐसा क्यों?
आत्मा सर झुका कर
कहेगी
ये कलयुग है
त्रेता में सीता भी
ऐसे ही
फिर तुम तो कलयुग में
तुम सी
बहुत झूठ साबित की गयी
मैं हूँ न
तुम्हारी आत्मा
तुम्हारे निर्दोष और निष्पाप
होने की गवाह
और क्या चाहिए?
याद रखो
कलयुग में
सच हमेशा रोता है
औ'
झूठ फरेब सुख से सोता है।

11 टिप्‍पणियां:

  1. याद रखो
    कलयुग में
    सच हमेशा रोता है
    औ'
    झूठ फरेब सुख से सोता है।
    बिल्‍कुल सही एवं सटीक अभिव्‍यक्ति ।

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  2. सच ना सुनाने की ताकत ...ना त्रेता में थी ..
    ना द्वापर में और ना कलयुग में कोई उम्मीद बची है अब इस सच की

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  3. सटीक और सार्थक अभिव्यक्ति।

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  4. कलयुग में झूठ का बोलबोला , सच जो बोले उसका मुह काला. घोर कलयुग है . सार्थक अभिव्यक्ति .

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  5. "याद रखो
    कलयुग में
    सच हमेशा रोता है
    औ'
    झूठ फरेब सुख से सोता है।"

    दीदी,आपने सच को बेहद साफगोई से सामने रख दिया.सही कहा है किसी ने"हंस चुगेगा दाना, चुगकरकौवा मोती खायेगा". बहुत सुन्दर भावाभिव्यक्ति.

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  6. मैं हूँ न
    तुम्हारी आत्मा
    तुम्हारे निर्दोष और निष्पाप
    होने की गवाह
    और क्या चाहिए?

    सच है ...
    अपनी आत्मा के प्रति ही होनी चाहिए हमारी जवाबदेही

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  7. @कलयुग में
    सच हमेशा रोता है
    औ'
    झूठ फरेब सुख से सोता है।

    क्यूँ होता है ऐसा?
    ऐसा क्यूँ होता है?

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  8. बहुत सुन्दर प्रस्तुति है आपकी.
    नयी पुरानी हलचल से आपकी पोस्ट
    का लिंक मिला.आपका लेखन
    सार्थकता की ओर है.अच्छा लगा पढकर.

    समय मिलने पर मेरे ब्लॉग पर आईयेगा.

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