क्यों भटक रही है?
ये नयी पीढ़ी,
न जमीं का अहसास
न आसमां का अंदाज
पैरों के तले
जमीं का अंदाज जो देखा
खिसकी नहीं है,
बस खिसकने के अंदेशे में
खुद को कत्ल कर लिया.
अभी कितना जीना था?
किसके लिए जीना था?
कुछ भी नहीं सोचा,
कितने बेसहारे छूटे ,
कितने पूरी तरह टूटे,
कुछ सोच नहीं पाते,
बस रास्ता भटक जाते हैं.
वह भी ऐसी रास्ता
जिससे वापस कभी नहीं आना है.
शेष रहा
बस अपनों को याद आना
तस्वीरें देखकर ,
मालाएं चढ़ाकर,
बस दीप जलाना है.
कुछ तो सोचो
इनकी इस गति को
किसी तरह थम लेना है.
उनके संवेगों को
पढ़ना ही होगा,
ये युवा लगातार
इस रास्ते पर जा रहे हैं,
भटक गए हैं
अँधेरे रास्तों के भय से,
आँखें मूँद लेते हैं.
फिर क्या हल मिला?
नहीं -
अब बागडोर हाथ में लेनी है
इन भटके हुओं को एक दिशा देनी है.
इन भटके हुओं को एक दिशा देनी है.
शुक्रवार, 16 अप्रैल 2010
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7 टिप्पणियां:
दिशा भ्रमित भी हमने किया, दिशा देनी होगी ...
बहुत ही बेहतरीन अभिव्यक्ति
sahi kaha hame kabhi pata hi nahi chala ki ham kahan ja rahe hai...pashchim ki andhi bhakti me poorab to kho hi gaya...
http://dilkikalam-dileep.blogspot.com/
बहुत ही सहि लिखा है..बहुत सुन्दर रचना है।बधाई स्वीकारें।
अति सुन्दर रचना!
अब बागडोर हाथ में लेनी है
इन भटके हुओं को एक दिशा देनी है.
दिशा अगर मिले तो क्यो भटकें. सार्थक सोच की सुन्दर कविता. साधुवाद
वर्माजी,
दिशा देगा कौन? हम ही न. वे अगर हमारे बच्चे हैं तो भी और अगर कहीं से भी हमसे जुड़े हैं तब भी. सह प्रयास होना चाहिए. हमारे संस्थान में ऐसे कई मामले होने पर. छात्रों ने और शिक्षकों ने कुछ संगठन बना लिए हैं. छात्रों में डिप्रेशन या उनके अलग थलग रहने पर सब सतर्क होते हैं और फिर उनको अपने साथ लेकर उनकी कौन्सिलिंग की जाती है. आत्महत्या एक स्थिति होती है, अगर उस पल को बचा लिया तो हमारी सफलता है .
अब बागडोर हाथ में लेनी है
इन भटके हुओं को एक दिशा देनी है.
इन भटके हुओं को एक दिशा देनी है.
बहुत ही ओजमयी कविता.... राह भटके हों को नयी दिशा देनी ही होगी...सहि रास्ते बताने ही होंगे...
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