बालकनी में बैठे दादा,
नीचे रेंग रहे लोगों को
देख रहे हैं
हसरत से,
ये अब तकाजा
हर इन्सान का ,
आज उनका तो
कल होगा हमारा।
वक्त के साथ कितना बदलें
अब पहले से तो
दिन ही नहीं हैं,
सब से सब होते हैं बेगाने।
पहले तो
हमारे गाँवों में
पार्क नहीं थे,
थीं चौपालें,
उन पर बैठे
खटिया डाले.
सब मिलकर हुक्का गुडगुडाते,
सबका सुख - दुःख
कह - सुन जाते,
सबका दुःख सबका होता था,
सबके सुख भी सबके होते,
कभी कभी
गाँव के खेतों के किनारे
पुआल जलाये
हाथ सेंकते
भून रहे है
चने , मटर के बूंट ,
भून आग पर
होला खाकर
होते मगन सब
आज तो कितने
यही न जानें,
कैसे खेत और कैसी खेती?
बच्चों ने छोड़ा
घर औ' गाँव
हमको भी
बेघर कर दिया,
महानगरों के
ऊँचे घरों में
जहाँ न छत अपनी,
न जमीं अपनी।
याद घरों की आती है,
बड़े बड़े आँगन के बीच में
तुलसी चौरे की वो बाती,
कुंएं का मीठा पानी
घड़ों और कलशों में होता,
गुड के डली और
मट्ठा पीकर
जीवन तो हमने भी जिया था,
पर अब
बस यादों ही यादों
के साए में
आँख कभी भर आती है,
जेहन में बसी
गाँव की सोंधी माटी
बहुत रुला रुला जाती है।
सोमवार, 14 दिसंबर 2009
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
7 टिप्पणियां:
जाने कितनों का कितना सारा दर्द समेट लाई आप अपनी इस रचना में ....बार बार पढने को मन किया.....और मैं मन की मानता रहा ॥ लिखती रहें
उम्र की ढलती सांझ का दर्द बहुत ही अच्छी तरह बयाँ किया है.पहले दादा-दादी का समय पोते पोतियों के सान्निध्य में सुख से कटता था....आज वे अपने स्कूल और हज़ार तरह के क्लासेस में व्यस्त हैं...आखिर इसका क्या हल है?...किताबें और कंप्यूटर,मनुष्य के सान्निध्य की कमी कभी पूरी नहीं कर सकते.
जीवन तो हमने भी जिया था,
पर अब
बस यादों ही यादों
के साए में
आँख कभी भर आती है,
जेहन में बसी
गाँव की सोंधी माटी
बहुत रुला रुला जाती है।
बहुत सुन्दर,
क्या करे, यही अंतिम सत्य है जिसे इंसान को अपने उत्तरार्ध में झेलना ही पड़ता है ! मैंने तो अपने कुछ बहुत अजीज, जो कि अपने उतरार्ध में कैंसर से पीड़ित थे, और उन्हें मालूम भी पड़ चुका था कि उन्हें कैंसर है मगर उन्होंने किसी को बताया नहीं, बस उदासी में ही एक-एक पल बिताया ! और मैंने यह देखा है कि वह इंसान कैसा महसूस करता होगा जिसे यह मालूम पड़ जाए कि अब चंद रोज ही खाते में बचे है !
jeevan ke satya ko bahut hi khoobsoorti se ubhara hai........ye hi antim satya hai sabhi ka.
उम्र की सच्चाई को बताती है आपकी या रचना ..छु लिया इस ने शुक्रिया
बहुत मार्मिक..मगर यही यथार्थ है.
बहुत गहरी संवेदना की बातें । समापन तो रुला ही गया -
"जैसे जेहन में बसी
गाँव की सोंधी माटी
बहुत रुला रुला जाती है।"
एक टिप्पणी भेजें