कौन से मानव है?
जो हकदार है
इन मानवाधिकारों के।
उससे पहले की मानव को अधिकार मिले
हर्ता पहले आ जाते हैं,
अपने साम-दाम-दण्ड-भेद
सब अपना कर
अपने नाम कर लेते हैं।
अगर सही नहीं
तो जाकर देखो
कितने निर्दोष
सड़ रहे हैं जेलों में।
अपने घर में झांकें
या
पड़ोसियों के.
विक्षिप्त से
वे मौत का इंतजार कर रहे हैं।
वर्षों पहले हमने
उन्हें मृत - लापता करार दे दिया
उनके जीने की खबरें मिली
व्याकुल से घरवाले
ऊपर तक दौड़े,
इस आस में
दम तो अपने दर पर निकले,
पर कदम थक गए
कोई मानव न जागा
मानवाधिकारों की बात कौन कहे?
वे वही अन्तिम साँसें लेंगे
और पता नहीं
कौन सी गति
उनको मिल पाएगी।
क्योंकि वहां तक पहुँच
किसी की नहीं ।
जो बंद किए हैं
वे मानव ही नहीं हैं।
गले मिलकर
हमदर्दी दिखा जाते हैं
मानवाधिकार की दुहाई देनेवाले
मानवाधिकारों की समाधि
बना जाते हैं।
औ'
हम चुपचाप उस अन्याय
अधर्म पर
बस आँसू बहाया करते हैं
उनके कष्टों का अहसास
करते करते
चाँद पंक्तियों के सहारे
नारे लगाया करते हैं।
पर हमारी आवाज
किसी बंद कमरे की तरह
दीवारों से टकरा कर
वापस हम तक आ जाती है,
और हमारे कानों में
पड़ कर
हमारी ही बेबसी का
अहसास दिला जाती है,
अहसास दिला जाती है.
गुरुवार, 10 दिसंबर 2009
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4 टिप्पणियां:
कितने निर्दोष
सड़ रहे हैं जेलों में।
अपने घर में झांकें
या
पड़ोसियों के.
विक्षिप्त से
वे मौत का इंतजार कर रहे हैं।
वर्षों पहले हमने
उन्हें मृत - लापता करार दे दिया
उनके जीने की खबरें मिली
व्याकुल से घरवाले
ऊपर तक दौड़े,
इस आस में
दम तो अपने दर पर निकले,
पर कदम थक गए
कोई मानव न जागा
मानवाधिकारों की बात कौन कहे?
वे वही अन्तिम साँसें लेंगे
एकदम सटीक कविता, हमने तो दरियादिली दिखा दुश्मन के एक लाख बंदियों को वापस कर दिया मगर ये मानवाधिकार के ठेकेदार ज़रा अपने पड़ोश के मुल्क में जाकर देखे कि हमारे युद्ध बंदियों (PoW) की उन्होंने क्या दुर्गति की !
ek jaagruk karne wali shashakt rachna ..bhaut achcha likha hai
blog par jarranawazi ka bhaut shukriya.
jaroori he jaagrukta..
satik lekhan, saarth baate..
दिल भर आया यह कविता पढ़कर....हम इतने बेबस क्यूँ हैं...या हम बस अपनी दुनिया में खुश हैं??...तब तक नहीं चेतते जब तक हमारे साथ कुछ ना हो जाए....यह निर्लिप्तता ख़त्म होई चाहिए...समाज की विसंगतियों को उजागर करती कविता...
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