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गुरुवार, 22 अक्तूबर 2009

उधार का सुख !

भीड़ भरी सड़क पर
धूल और पसीने से लथपथ
एक रुमाल से पसीना पौछती,
रोज सड़क से
कभी कभी टूटी चप्पल
घसीटती हुई
घर तक पहुँचती थी।
वही जिन्दगी
चार दिन के
उधार के सुख में
मखमली गद्दों पर
जब गुजरने लगी
तो
रात में नींद नहीं आती है।
होटल से निकल कर
नीचे खड़ी गाड़ी औ'
शोफर दरवाजा खोलकर
सलाम कर रहा है।
चारों और गाड़ियों की
सरसराहट
देखकर लगता है
काश! बगल की सीट पर
कोई अपना होता।
कालीन बिछे फर्श पर
कई बार लड़खड़ाते बची,
कहाँ सीखी थी ,
होटलों की तहजीब
कहाँ इतने पैसे थे।
चुपचाप बगलवाले को
देखकर
खाने-पीने के
सलीके सीख लिए।
फिर भी
शर्म आ जाती थी
अपनी कुछ अटपटी सोच पर
वाकिफ ही नहीं
तो क्या करती?
जी तो रही थी
इस उधार के सुख को
पर हर पल
ये अहसास पीछा
कर रहा था
काश ! मेरे घर का भी
कोई मेरे साथ होता
मेरा सुख शायद दुगुना होता।
इस सुख से सुखी कम
दुखी अधिक हो रही थी।
जीवन का कौन सा पुण्य
यहाँ तक लाया
शायद युधिष्ठिर के
एक झूठ से
नरक के दर्शन
और मेरे किसी पुण्य से
इस स्वर्ग का दर्शन
ये क्षणिक सुख
सपने की तरह बीत गया
फिर वही कल से
चाय , खाने की किटकिट
फिर काम पर जाने का तनाव
क्या खेल खेलता है
ये ईश्वर
उधार की सुख देकर
जिन्हें कभी अभाव
नहीं समझा
मेरी नियति है
समझ कर सुख से जिया,
उसको देखकर
कभी एक पल
कुंठा उभरने लगती है।
क्या वो मेरी नियति
नहीं बन सकता था।
जो उधार का सुख समझ रही हूँ।
इस दुर्स्वप्न के
टूटने का अहसास तब हुआ
जब
कुली की आवाजें
स्टेशन पर आनी
शुरू हो गयीं
और
अपना सूटकेस उठाकर
चुपचाप उतर कर
स्टेशन पर आई ।
अब गाड़ी या शोफर नहीं
एक ऑटो लेकर
घर के लिए चल दी।
यही उसकी नियति थी,
है और रहेगी।
पर
घर , घरवाले और बच्चों का साथ
सबसे बड़ा सुख औ' स्वर्ग
कहीं हो ही नहीं सकता ।
इससे बड़ा सुख कभी
मिल ही नहीं सकता.

3 टिप्‍पणियां:

अजय कुमार ने कहा…

घर , घरवाले और बच्चों का साथ
सबसे बड़ा सुख औ' स्वर्ग
कहीं हो ही नहीं सकता ।
bahut gahree baat

kishore ghildiyal ने कहा…

namaskaar
sach hain ghar waalo se bada sukh koi nahi ho sakta

Udan Tashtari ने कहा…

घर , घरवाले और बच्चों का साथ
सबसे बड़ा सुख औ' स्वर्ग
कहीं हो ही नहीं सकता ।
इससे बड़ा सुख कभी
मिल ही नहीं सकता.

--सत्य वचन!!