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सोमवार, 29 सितंबर 2008

एक वह भी जमाना था

  • फिल्मी दुनिया बचपन से ही मेरे इतने करीब रही कि ऐसा कभी नहीं लगा कि यह कुछ अलग दुनियाँ है। बचपन से ही छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी ख़बर से वाक़िफ़ रहती थी। मेरे पापा ख़ुद पढ़ने और लिखने के शौकीन थे। उस समय प्रकाशित होने वाली जितनी भी मैगज़ीन थी सब मेरे घर आती थी। चाहे वे साहित्यिक में सारिका, धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान, कादम्बिनी हो या फिर फिल्मी में 'सुचित्रा' जो बाद में 'माधुरी के नाम से प्रकाशित हुई। फिल्मी कलियाँ, फिल्मी दुनियाँ, सुषमा यह सब फिल्मों के शौकीनों कि जान हुआ करती थी। उस समय इन मैगजीनों में फिल्मों के दृश्य, फिल्मी दुनियाँ कि हलचल, नई फिल्मों कि शूटिंग के दृश्य, फिल्मी समारोहों के चित्र सब रहते थे और साथ ही रहते थे नई फिल्मों के ड्रामे। जो पूरी कहानी और चित्रों के साथ दिए जाते थे। एक पत्रिका में करीब - ड्रामे हुआ करते थे और उस समय नई फिल्में छोटी जगहों पर तो जल्दी आती नहीं थी सो हम अपना शौक इसी से पूरा कर लिया करते थे। टीवी जैसी कोई चीज उस समय नहीं थी।
  • मेरे छोटे से कस्बे 'उरई ' में उस समय एक ही टाकीज हुआ करती थी, 'कृष्णा टाकीज' और उसके मालिक मेरे पापा के मित्रोंमें से हुआ करते थे। बस नई फिल्म आई नहीं कि गया बुलावा और हम सपरिवार चल देते थे। नई फिल्म के आने कि सूचनाभी उस समय बड़े रोचक ढंग से दी जाती थी। नई फिल्म के बड़े बड़े पोस्टर रिक्शों पर रख कर पूरी बारात कि तरह से बैंडबाजे के साथ निकली जाती थी। एक बंद रिक्शे में टाकीज का कोई आदमी लाउद्स्पीकर लिए बोलता रहता था कि अमुक टाकीज में आज से यह फिल्म गई है और इतने शो में देखने जरूर आइयेगा और उसके बाद उस फिल्म के गाने बजाने लगते थे। कुछ पैदल कर्मी हाथ में फिल्म के परचे लिए उनको बांटे चलते थे और बच्चे उनके पीछे पीछे उनको लेते जाते थे। हम लोग भी अपनी छत पर खड़े होकर यह तमाशा देखने से नहीं चूकते थे।

  • टाकीज में लेडीज क्लास अलग होता था , बालकनी को पार्टीशन करके बनाया गया था और सभी महिलायें उसी में बैठती थीं। हम भी अपनी दादी, माँ और चाची के साथ देखने के लिए जाते थे। फिर लौट कर अपनी सहेलियों को फिल्म कि स्टोरी भीसुनाया करते थे। अपने ग्रुप में सबसे अधिक फिल्म देखने वाले हमीं थे। शुरू में श्री गणेश, सम्पूर्ण रामायण, नाग कन्या, नागमणि , ही अच्छी लगती थी। महिपाल और अनीता गुहा कि आदर्श जोड़ी थी जो कि धार्मिक फिल्मों में दिखाई देती ऐसा नहीं था कि सिर्फ धार्मिक फिल्में ही देखते हों। बचपन कि यादों में कहीं गृहस्थी, गहरा दाग, दिल एक मन्दिर, हमराही, ताजमहल, सूरज, मेरे महबूब जैसी फिल्मों के दृश्य और गाने अभी भी बसे हुए हैं। इस बात से इनकार नहीं कर सकती कि वे कहानी और गीत आज भी लाजवाब है और रहेंगे।
  • फिल्म ' संगम ' का एक वाक़या अभी याद है - मेरे छोटे चाचा कि नई नई शादी हुई थी और हमारी चाची बड़ी शौकीन थी, लेकिन चाचा अकेले चाची को लेकर कैसे चले जाए। उस ज़माने के सभ्यता के खिलाफ था और मैं ही बच्चों में सबसे बड़ी थी और बस हम को लेकर चल देते। पहले से ही सुना था यह पिक्चर बहुत ही गन्दी है। मैं देख कर गई लेकिन मुझे समझ नहीं आया कि इसमें गन्दा क्या था? बहुत बाद में पता चला कि वैजयंतीमाला के नहाने वाला दृश्य ही सबसे गन्दा मन गया था उस समय।

  • साधना कट बाल उस समय बहुत ही लोकप्रिय थे और हमें भी भा गए सो एक दिन कमरा बंद करके अपने हाथ से साधना कट बाल काट लिए , जब बाहर आए तो पड़ी कस कर डांट - मन ही मन सोचा चलो डांट पड़ गई कोई बात नहीं बाल थोड़े ही ठीक हो जायेंगे। जब स्कूल गई तो टीचर ने लगाई डांट - तब लगा कि हाँ जरूर कुछ ग़लत हो गया है। आज अपने बचपने पर ख़ुद ही हँसी आती है।

  • कुछ सालों बाद एक टाकीज और खुल गई 'जयहिंद ' , तब तो और मजे कभी इसमें और कभी उसमें। उस समय मनोज कुमार, राजेंद्र कुमार , मीना कुमारी, माला सिन्हा, शर्मीला मेरे प्रिय कलाकार थे। अब फिल्म पसंद करने का स्तर बदल गया सामाजिक और गंभीर फिल्में मुझे बचपन से ही पसंद थी। उन कलाकारों में अपने को खोजने कि आदत भी आने लगी थी। हम सभी भाई बहन फिल्मों के बारे में चर्चा किया करते थे। भाई साहब हमारे कुछ अधिक जानकारी रखते थे सो हम उनसे जानकारी इकट्ठी करते रहते।

  • बचपन के दायरे से जब निकल कर बाहर आई तो पहली फिल्म मुझे पसंद आई वह थी - 'मेरे हुजूर' और उसका गाना 'गम उठाने के लिए ....' मेरा पहला पसंदीदा गाना था। मैं जीतेन्द्र कि फैन हो गई थी। जो अक्ल आने तक बनी रही। लेकिन उसके बाद फिल्में देखने पर पाबंदी लगा दी गई। फिर शिर्फ अच्छी और कम फिल्में ही देखने के लिए मिलती , मां ने भी बंद कर दीं।शायद यह किशोर लड़कियों कि दृष्टि से ठीक भी था।

  • जब कला फिल्मों का जमाना आया तो काफी समझ चुकी थी। 'अंकुर', 'निशांत', 'भूमिका ', जैसी फिल्मों कि जानकारी सिर्फ पत्रिकाओं से ही मिल पाती थी। छोटी जगह में आती भी नहीं थीं ऐसी फिल्में। मैंने हंसा वाडेकर लिखित 'भूमिका' का मूल उपन्यास भी पढ़ा था। कला फिल्में दिल को छू लेने वाली होती थी। इन फिल्मों को देखने कि हसरत दिल में ही रह गई इसके बाद कि पीढी में 'कभी-कभी', मौसम, आंधी' जैसी फिल्में मुझे बहुत पसंद आई। जो कि मेरी रूचि के अनुरूप थीं। पाबन्दी लगाने के बाद 'रेडियो' और 'पत्रियें' ही मेरा सहारा रह गई थी और उनसे लगता नहीं था कि मैं फिल्म नहीं देखि है। सारा कुछ पता चल जाता था। 'आल इंडिया रेडियो' से इतवार को आने वाले साउंड ट्रेक भी खूब मजा देते थे। रेडियो भी मेरी जान था , पढ़ती थी तो रेडियो बजाकर। जो हमारी दादी को कम ही पसंद आता था। बड़ों के सामने फिल्मी गाना गुनगुनाना भी मना था।

  • मेरे भाई साहब तो इतने शौकीन थे कि उन्होंने 'जानी मेरा नाम' करीब ४० बार देखी और अगर अब भी मिल जाए तो छोड़ते नहीं हैं लड़की होने के नाते अकेले तो कभी घर के बाहर नहीं निकलना होता था सिर्फ कालेज के लिए जा सकते थे। जब कहीं जाओ कोई साथ होना चाहिए। मेरे एक चाचा मेरे से थोड़े से बड़े थे उनकी शादी जल्दी कर दी गई और चाची आई मेरी हीउम्र कि जब पिक्चर जाना हो तो मां से कहती जाना है पापा से पूछो लो और मां पापा से पूछती कि रेखा पिक्चर जाना चाहतीहैं, तो वही सवाल किससे साथ। मां कह देती बहू के साथ जा रही है और इजाजत मिल जाती। भले ही चाची मेरे बराबर थी।लेकिन शादीशुदा होने का मतलब कि कोई जिम्मेदार व्यक्ती साथ जा रहा है। मजे कि बात यह थी कि चाची भी अकेले जा नहीं सकती थीं और चाचा तो बिल्कुल भी शौकीन नहीं थे. इसलिए चाची का सहारा मैं और मेरा सहारा चाची थी। यह थी उस कस्बे कि कहानी।
  • उस घटना को मैं कभी भूल नहीं सकती हूँ, १९७२ में मीनाकुमारी का निधन हो गया और मैंने 'माधुरी' में एक संवेदना पत्र लिखा जो प्रकाशित हुआ और फिर इतना पसंद किया गया कि लेख लिखने के प्रस्ताव आने लगे और मैंने अपना लेख ' फिल्मी दुनियां में नारी कि भूमिका' लिखा और प्रकाशित हुआ लेकिन शुभचिंतकों को कुछ अच्छा नहीं लगा. एक छोटी जगह कि लड़की फिल्मी लेख लिखे , लिहाजा सलाह दी गई कि लिखो मगर दिशा बदल दो और उसके बाद दिशाबदल गई कलम ने अपनी विधा ही बदल दी जो आज तक उसी दिशा में जा रही है।

4 टिप्‍पणियां:

Yashwant R. B. Mathur ने कहा…

कल 21/09/2011 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
धन्यवाद!

अजय कुमार ने कहा…

सुंदर संस्मरण , आप फिर से फिल्मों पर लिख सकती हैं ,अब तो कोई पाबंदी नहीं होनी चाहिये।

Rajesh Kumari ने कहा…

aapka sansmaran itna achcha laga padhne par lag raha tha mano main apni jindgi ka hi flash back dekh rahi hoon.bahut samanta hai.bahut prbhavit kiya aapke is lekh ne.aapke blog par aana achcha laga.

S.M.HABIB (Sanjay Mishra 'Habib') ने कहा…

सुन्दर रोचक संस्मरण.... वाह...
सादर...